दिल्ली में सत्य साईबाबा अंतरार्ष्ट्रिय केन्द्र में दिए गए ज्ञान के कुछ अंश:

प्रश्न:अगर ईश्वर हमारे भीतर ही है तो बचपन में हमें बाहर मंदिर में पूजा करना क्यों सिखाया जाता है? हमे अपने भीतर ईश्वर ढूँढना क्यों नहीं सिखाया जाता? अगर हमे बचपन से ही यह सिखाया जाता तो कितना आसान हो जाता।

श्री श्री रवि शंकर: सारी परपंरा में यही कहीं असल अर्थ समझने में गलती हो गई। पहले 8-9 साल के बच्चे को सबसे पहले जो सिखाया जाता था - वह था मंत्र का जाप, और क्या करते थे इसके दौरान? इस भाव से जप करते थे कि सब मेरे भीतर ही है। इसीलिए इसे ब्रह्म उपदेश कहते थे। जैसे सूरज हमारे भीतर और बाहर है, वैसे ही आध्यात्मिक सूरज तुम्हारे भीतर है। चमकता हुआ सूरज बताता है कि तुम्हारे भीतर भी रोशनी देने वाला ऐसा ही सूरज है। बच्चे को पहले ध्यान और फ़िर कुछ अनुष्ठान (Ritual) सिखाए जाते थे। अनुष्ठान में भी थोड़ा कुछ तो है। हम उन्हे बिल्कुल अनदेखा नहीं कर सकते। उनके पीछे वैज्ञानिक गहराई है और उन्हे रखने का एक कारण है। उनसे एक वातावरण जगता है, भाव उदय होता है। मन हमेशा बाहर की वस्तु से जोड़ता है। मेरे आसपास कितना आकाश है, पर मन उससे नहीं जुड़ता। तुम उससे संबद्ध जोड़ते हो जिसे तुम देख सकते हो, सुन सकते हो या बात कर सकते हो। इसलिए लोगों ने यह मूर्तियाँ बनाई ताकि भाव जग सके। अगर गहराई से देखें तो मंदिर के बाहर रखी जाने वाली मूर्तियाँ एक वैज्ञानिक दिमाग की रचना है। 
सारी दुनिया में हर धर्म के साथ कुछ प्रतीक जुड़े हैं। सिख गुरु ग्रन्थ साहिब से जुड़े हैं, जेन महावीर भगवान की मूर्ति से जुड़े हैं और बौद्ध धर्म के लोग बुद्ध से जुड़े हैं। इसी तरह ईस्लाम धर्म के लोग भी। मस्जिद को देखते ही मन में एक भाव जगता है कि नहीं। कुरान को देखते ही मन में एक भाव उठता है कि नहीं? अगर हम किताब के साथ अपना भाव जोड़ सकते हैं तो राम की मूर्ति से क्यों नहीं! मूर्ति है ही इतनी खूबसूरत कि अपने आप ही भाव उमड़ता है। इन सब चीज़ों के पीछे एक गहरा मतलब छिपा है। मन प्रत्यक्ष से जल्दी जुड़ता है। नहीं तो इतने विद्वान रहे हैं यहाँ, वो यह सब हटाने के लिए कह सकते थे। पर उन्होने ऐसा नहीं किया। क्यों? उन्हे मालूम था कि कुछ लोगों को इससे फ़ायदा हो रहा है। पर अगर आप इन सब के ऊपर उठना चाहते हैं तो वेदान्त की ओर चलते हैं - अद्वैत ज्ञान (Knowledge of Non-dual existence) - द्वैत से अद्वैत - उसमें स्थिर होते हैं। 

मंदिर केवल पूजा का ही एक स्थान नहीं था, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का भी केन्द्र था। मंदिर में *प्राण उर्जा अधिक होती है और जहाँ जीवन उर्जा डली, वहाँ लोगों को फ़ायदा हुआ।         

एक बच्चे की कहानी है जब वो अपने गुरु से ईश्वर के बारे में पूछता है। किस तरह गुरु अपने शिष्य को धीरे धीरे उस परम सत्य के और लेकर चलता है, यह बहुत खूबसूरत है।
शेष अंश अगली पोस्ट में... 
*प्राण उर्जा: जीवन उर्जा जो सृष्टि में होने वाले हर प्राकृतिक गतिविधि के पीछे है।




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