अष्टमी

15 अक्टूबर, 2010

हम आज यज्ञों की चरम सीमा पर आ रहे हैं। दुर्गा सप्तशती के 13 अध्याओं में से श्लोक पढ़े जा रहे हैं और हर अध्याय के साथ अलग अलग आहुतियाँ चढ़ाई जा रही हैं जिसका अर्थ है हम सब कुछ समर्पित कर रहे हैं। इस भाव के साथ बैठे हैं कि देवी शक्ति हमारे साथ है। देवी चित्त स्वरूपी है। हम सब में, हर एक रूप में वही है। बुद्धि के रूप में, भूख के रूप में, चित्त के रूप में, दृष्य रूप में, आनंद के रूप में - अलग अलग रूप में देवी शक्ति ही है। तुम शरणागत हो जाओ, और ईश्वरीय शक्ति तुम्हे पाप से छुड़ा देगी। दक्षिण भारत और द्वाराका के बड़े बड़े मंदिरों से अलग अलग वेदों में निपुण पंडित आए हैं और हम सब भाव से तो कर ही रहे हैं, मन में कुछ भी आए सब की आहुती देते चले गए, और बाकी काम अपने आप हो रहा है।

जो भीतर से जागा हुआ है, वेद के मंत्र उसकी तरफ़ भागते हैं। ध्यान का फल इतना श्रेष्ठ होने के कारण ही ध्यान इतना आवश्यक है। इसीलिए यहाँ पर ध्यान, साधना और यज्ञ कर रहे हैं। जिस क्रम से सृष्टि बनी है, आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि - उसी का अनुकरण करना यज्ञ की प्रक्रिया है। इससे हमे मिलता क्या है? स्वास्थ, तीष्ण बुद्धि, विद्धा, यश, प्रज्ञा(होश) और आयुश बड़ता है। कोई ऐसी चीज़ छोड़ी ही नहीं! सब मिलता है, इस लौकिक प्रपंच का भी और आध्यात्मिकता का भी। जो यज्ञ में नहीं भाग लेते उन्हे ना कुछ इधर का मिलता है ना उधर का। हमने द्रव्य यज्ञ किया। ज्ञान यज्ञ, ध्यान यज्ञ, तरह तरह का यज्ञ होता है। सब बैठकर कीरतन करते हैं, वो भी एक यज्ञ है। यज्ञ का समागम उत्सव में करना बहुत अच्छा है। पर उत्सव के बीच में कुछ क्षणों के लिए मौन भी चाहिए। मंत्रों के उच्चारण से ध्यान के लिए एकदम सही माहौल बन गया है। हो सकता है स्थूल स्तर पर हमारी बुद्धि इनका असर ना समझ पा रही हो पर सूक्ष्म स्तर पर हम पर इसका सुंदर प्रभाव पड़ रहा है।

कल ऋषि होम है। कितने ही ऋषि मुनि हुए हैं। कल के दिन ज्ञान की देवी, सरस्वती का भी आहवान करते हैं। यह देवी माँ के लिए बहुत शुभ अवसर है। असल में दिव्यता यां ईश्वर का कोई लिंग नहीं है, पर क्योंकि हमारा सबसे पहला संबंध माँ से जुड़ता है, इसलिए यह भाव हमें अपने प्रेम रूपी स्वभाव से आसानी से जोड़ देता है।
अब हम कुछ क्षणों के लिए ध्यान करेंगे!



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