भक्ति आप को खुशी और सुख प्रदान करती है

१४ मार्च २०११,बैंगलुरू
प्रश्न : प्रिय गुरूजी, पार्ट १ कोर्से का एक ज्ञान सूत्र है, वर्तमान क्षण में जीये परन्तु मेरा वर्तमान इतना पीडादायक है,कि मैं अपने अतीत में ही रहता हूँ, जो कि अत्यंत सुन्दर था| अब मैं इस सूत्र को अपने जीवन में कैसे अपनाऊ ?
श्री श्री रवि शंकर:
यदि वर्तमान पीड़ादायक है,फिर भी उसी के साथ रहकर उसका अंत होने दे अन्यथा आप उसे चादर के निचे ढक रहे हैं | एक काल्पनिक दुनिया में रहकर वास्तविक सच्चाई का अहसास नहीं होना भी ठीक नहीं है|इसलिए यह अच्छा होगा कि वर्तमान में रहकर उस में से निकल जाये |

प्रश्न : प्रिय गुरूजी, जब मैं वेबकास्ट देखता हूँ, तब भी मुझे आपकी मौजूदगी महसूस होती है, मुझे ऐसा लगता हैं कि आप मुझे देख रहे है| इस यथार्थमय दुनिया मे आप अपनी वास्तविक मौजूदगी कैसे संभव कर पाते है ?
श्री श्री रवि शंकर:
यह एक रहस्य है!!! आप भी इस कड़ी से जुड सकते है !
प्रश्न: मैने आर्ट ऑफ लिविंग का कोर्से तीव्र और केंद्रित होने के लिए किया था ,लेकिन गुरूजी अब आप मेरी व्याकुलता का सबसे बड़ा कारण बन गये है, और मुझे यह व्याकुलता अच्छी लगती हैं | क्या यह ठीक है ?
श्री श्री रवि शंकर :कुछ समय के लिए यह ठीक है | ऐसा कहा जाता है, कि जब पानी में फिटकरी को डाला जाता है, तो वह पानी मे से सारी अशुद्धता को निकाल देती है| पानी को शुद्ध कर देती है,और फिर वह उसी में विलीन हो जाती है |

प्रश्न : गुरूजी प्रेम को भय रहित होना चाहिये फिर भी व्यक्ती प्रेम में भय का अनुभव क्यों करता है?
श्री श्री रवि शंकर:
भय प्रेम का ही अन्य स्वरुप है| यदि आप एडवांस कोर्से करेंगे तो इन सब बातों के उत्तर मिल जायेंगे | यह तीन भावनाये प्रेम, भय और घृणा क्या है और कैसे वे तीनो एक ही उर्जा से बनते है और कैसे आप भय और घृणा को प्रेम में परिवर्तित कर सकते है |

प्रश्न : प्रिय गुरूजी, जय गुरुदेव! जब मैं इस पथ पर हूँ तो मेरी आध्यात्मिक प्रगति की जिम्मेदारी आपकी है या मेरी है ? यदि आपकी हैं तो मेरी प्रगति इतनी धीमी और बाधायुक्त क्यों है, और यदि यह मेरी है तो मेरे प्रयास इतने कमजोर क्यों है ?
श्री श्री रवि शंकर:
चूंकि अब आप यह प्रश्न कर रहे हैं,तो अब यह हम दोनों की जिम्मेदारी हो जाती है| अपने तरफ से १००% करे और फिर विश्राम करे और यदि आपको ऐसा लगता है कि आप और अधिक और बेहतर कर सकते है तो इससे यह संकेत मिलता है कि आप जिम्मेदार है | जब आपको ऐसा लगता है कि आप वो सब कुछ कर रहे है जो आप कर सकते है तो फिर वह जिम्मेदारी आप की नहीं रह जाती |

प्रश्न: शरीर और आत्मा को कुछ जोड़ कर रखता है | वह जोड़ कर रखने वाला तत्व क्या है और कुछ समय बाद उन दोनों को जुदा करने लिये उसे क्या प्रेरित करता है ?
श्री श्री रवि शंकर:
आत्मा के संस्कार उसे शरीर से जोड़ कर रखते है| और इसी को कर्म कहते है |

प्रश्न:गुरूजी मुझे लगता है कि मै अत्यंत ऊब जाने की समस्या से पीड़ित हूँ | मैं हर बात से बहुत ही जल्दी और आसानी से ऊब जाता हूँ, मैं परिस्थिति,लोग,और स्थान से ऊब जाता हूँ| क्या मेरी समस्या का कोई समाधान है ?
श्री श्री रवि शंकर:
ऊब जाना ! जब आप हर बात से ऊब जाते है तो फिर आप क्या करते है| मुझे सोचने दीजिये कि आप क्या कर सकते है!
यह ऐसा इसलिए है क्योंकि आप सिर्फ अपने बारे मे सोच रहे है,| जब आपको पता नहीं होता है कि आपको क्या सुख प्राप्त होने वाला हैं तो आप ऊब जाते है, क्योंकि यह संसार वास्तव मे आपको संतुष्ट कर ही नहीं सकता, वह सिर्फ आपको उबा सकता है,परन्तु जब आप मे सेवा करने की भावना होती हैं,और लेने की नहीं तो फिर आप कभी भी ऊब नहीं सकते | आप सोच सकते कि मैं क्या कर सकता हूँ,और मैं कैसे उपयोगी हो सकता हूँ | यदि आप इन बिन्दुयो पर विचार करते हुये किसी उद्देश्य के लिये अपने जीवन को समर्पित करेंगे तो आप उससे कभी भी ऊब नहीं पायेंगे परन्तु यदि आप कृत्य मे सुख पाने की अपेक्षा कर रहे, तो आप ऊब जायेंगे | ऊब जाने का सरल अर्थ है क्या ?
आपने कृत्य में खुशी या आनंद की अपेक्षा करी जो आपको मिली नहीं | इस दुनिया से आपने कुछ खुशी या आनंद की अपेक्षा करी जो आपको मिली नहीं और आप ऊब गये | शुरुआत मे किसी वस्तु या परिस्थिति ने आपको खुशी या आनंद प्रदान किया और आप उसे दोहराते गये और फिर उससे ऊब गये | इसलिए कृत्य मे खुशी या आनंद को खोजना बंद कर दे और जान ले कि आप स्वयं ही आनंद है, फिर आप खुशी या आनंद की तलाश नहीं करेंगे और निराश या ऊब नहीं जायेंगे |

प्रश्न: प्रिय गुरूजी स्वाभाविक होने का अर्थ क्या है? क्या इसका तात्पर्य यह है कि जो भी मन मे आये उसे करना या जो भी अच्छा लगता है उसे करना |
श्री श्री रवि शंकर:
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो भी मन मे आये उसे करना है | ध्यान, सजगता और विचार के बिना जो भी मन मे आये उसे करना मूर्खता है | जो भी मन मे आये उसे करने के लिए उसे बुद्धि और विवेक की कसौटी पर खरा उतरना होगा |स्वाभाविक होने का अर्थ है अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों मे स्वयं मे या घर मे होने का अनुभव | जब आपको पता होता है कि सब कुछ ठीक है तो आप स्वयं मे या घर मे होने की अनुभूति करते है परन्तु जब सब कुछ आपके विपरीत होता है तो आप स्वयं मे या घर मे होने की अनुभूति नहीं कर पाते है और उससे भाग जाना चाहते है | इसलिए हर परिस्थिति मे स्वयं मे या घर मे होने की अनुभूति करना स्वाभाविक होना है |

प्रश्न: गुरूजी आज के व्यावसायिक दुनिया मे योग की शिक्षा की पवित्रता को कैसे बरकरार रखा जाये ?
श्री श्री रवि शंकर
: सबसे पहले आपने इस दुनिया और उससे जुड़े कारणों की निंदा नहीं करनी होगी |योग की पवित्रता तब होती है जब आपका आशय स्पष्ट होता है,आप यहाँ पर सेवा करने आये है |जब आपकी सोच मे यह होगा कि २० प्रशिक्षणार्थी है और में इससे इतना धन अर्जित कर सकूंगा , तो योग की पवित्रता भंग हो जायेगी | इसलिये हमने अपने कोर्से की रचना इस प्रकार से करी है कि व्यय की पूर्ती करने के लिये एक प्रशिक्षक को बहुत ही कम धन प्राप्त होता है | आप उसे सेवा के रूप मे कर रहे है और उसके लिए शुल्क इसलिये रखा गया है, क्योंकि शुल्क के बिना लोग उसे महत्त्व नहीं देते है और कार्यक्रम को आयोजित करने के लिए आवश्यक वस्तुओ जैसे दरियां, मायक्रोफोन इत्यादि को एकग्रित करने के लिये भी धन की जरूरत होती है | इसलिये यदि आपका आशय साफ है, और आप आर्थिक रूप से या अन्यथा भी सक्षम है और यह आपके लिये सिर्फ अतिरिक्त आमदनी हैं तो फिर ठीक है परन्तु यदि आपकी सोच यह है कि मै योग की शिक्षा देकर धन अर्जित करूँगा तो फिर आपका मनोभाव पूर्णता बदल चुका है |
एक ऐसे स्कूल अध्यापक की कल्पना करे जो छात्रों को सिर्फ इसलिये पढ़ा रहा है की वह धन कमा सके और इस पर ध्यान न दे कि छात्र उत्तीर्ण हो और अच्छा करे | एक अध्यापक जो एक घंटे के लिये ट्यूशन पढ़ाने के लिये आये और जो हर १५ मिनट मे घड़ी की ओर देखे और फिर चला जाये तो ऐसे शिक्षक की गुणवक्ता कैसी होगी | जब व्यावसायिक मनोभाव नहीं होता है तो व्यतिगत ध्यान और परामर्श हो पाता है क्योंकि आप वहाँ पर किसी उद्देश्य के लिये दूसरों की सेवा करने के लिये है |

प्रश्न: प्रिय गुरूजी पूरी दुनिया मे आप मेरे लिये सब से प्रिय है ओर मेरी पूरी दुनिया आप ही के आस पास घूमती है ? मैं कैसे आपका सबसे प्रिय हो जाऊँ?
श्री श्री रवि शंकर
: इस आध्यात्मिक मार्ग के पथ पर चल कर !!!

प्रश्न: प्रिय गुरूजी जापान के घटनाक्रम को देखकर मुझे लगने लगा है कि धरती माँ हमसे बहुत नाराज़ है? आपके प्रयास बहुत प्रभावकारी होते है, गुरूजी आप कुछ प्रयास करके उनको शांत करे |
श्री श्री रवि शंकर:
हाँ ! धरती माँ बहुत दुखी है |

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव मेरी सारी उर्जा एक व्यक्ति को संभालने मे व्यतीत हो जाती है , आप इतने सारे लोगो को कैसे संभाल लेते है ?
श्री श्री रवि शंकर:
इसलिये मै यहाँ पर बैठा हूँ !!!

प्रश्न: मानव को इस गृह मे हर प्रजाति मे श्रेष्ठ माना गया है, तो फिर मानव रूप मे जन्म लेने के उपरांत, हम मुक्ति की अभिलाषा क्यों करते है ? क्या वह स्थान यहाँ से अधिक सुन्दर है ?
श्री श्री रवि शंकर:
खुशी की चाहत होना स्वाभाविक है, हर कोई खुशी चाहता है परन्तु खुशी अकेली नहीं आती | वह अपने साथ दुःख को भी लेकर आती है और कोई भी दुःख नहीं चाहता इसलिये दुःख से मुक्ति चाहते है |कोई व्यक्ति किस से मुक्ति चाहता है ? दुखों से और दुखों से मुक्ति की चाहत होना स्वाभाविक है | जैसे खुशी की चाहत होना स्वाभाविक है उसी तरह दुखों से मुक्ति की चाहत होना भी स्वाभाविक है |ठीक हैं,जब कोई जितना जल्दी यह समझ जाता है कि खुशी तो हैं परन्तु उसके साथ दुःख भी है तो मुक्ति पाने की इच्छा प्रबल हो जाती है |
जो खुशी की कामना नहीं करता उसे मुक्ति प्राप्त होती है और जो मुक्ति की भी कामना नहीं करता उसे भक्ति प्राप्त होती है |
भक्ति आपको अत्यंत खुशी और सुख प्रदान करती है |

प्रश्न: गुरूजी आप कहते है प्रेम महान और भय रहित होता है | तो फिर ऐसा क्यों है कि मुझे जिस व्यक्ति से प्रेम है, वह इतना भययुक्त क्यों है ?
श्री श्री रवि शंकर:
जिस से आप प्रेम करते है, वह भययुक्त है? ठीक हैं!! हमें यह पता नहीं है, कि आपने उसको इतना क्यों डरा दिया है कि वह भययुक्त हो गया हैं | सबसे पहले यह देखे कि जिस व्यक्ति से आप प्रेम मे है वह भी आप के साथ प्रेम करता हैं |
कई बार हमें लगता है कि हम किसी से प्रेम करते परन्तु हमें यह नहीं मालूम होता है कि हम कितने उचित रूप से उसे अपना प्रेम अभिव्यक्त करते है | आप किसी के लिये दिल से कितना प्रेम महसूस करते हैं उसे अभिव्यक्त करना उतना ही कठिन होता है | आप उसे कैसे अभिव्यक्त करेंगे? शब्दों से आप उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकते |गहन प्रेम के जैसा कुछ भी अभिव्यक्ति की परिधि मे नहीं आता | इसे अभिव्यक्त करना बहुत कठिन है और जब आप बहुत कठिनाइयों से इस प्रेम को अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं, तो लोग भयभीत हो जाते है | उस अन्य व्यक्ति को भी आपके द्वारा दिया गया प्रेम स्वीकार करना आना चाहिये ,ठीक है ? इसलिये यह महत्वपूर्ण है कि प्रेम को अभिव्यक्त करना आना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को आपको कितना प्रेम अभिव्यक्त करना है, यह भी आना चाहिए |ठीक है !!
ऐसी कल्पना करे कि यदि कोई आप रोज दिन और रात भर बुलाकर यह कहता रहे कि “ मैं तुम से प्रेम करता हूँ , मैं तुम से प्रेम करता हूँ, मैं तुम से प्रेम करता हूँ,”, तो फिर आप क्या कहेंगे; ठीक हैं, तुम मुझसे प्रेम करते हो, ठीक बात है, लेकिन आगे क्या | ठीक है न ?
इसलिए जब तक हम विवेक का सहारा नहीं लेंगे तब तक हम न तो प्रेम को उचित रूप से अभिव्यक्त कर सकेंगे और न उसे ग्रहण कर सकेंगे, क्युकि उसके लिए भी कुछ योग्यता आवश्यक है | विवेक के साथ व्यक्ति प्रेम में परिपूर्ण होता है और उसके प्रत्येक कृत्य मे प्रेम झलकता है | जीवन मे दिव्यता को गले लगाने से हमारे सारे रिश्ते अपने आप खिलने लगते है, परन्तु यदि आप रिश्तों को बाँध कर रखना चाहेंगे तो उससे कुछ प्राप्त नहीं होता | एक तरफ से सारी बातें बेहतर होती जायेंगी और दूसरी ओर से वे और भी बिगड़ जायेगी, इसलिए आप स्वयं में केंद्रित रहे, भक्ति में रहे फिर हर बात का अपने आप ध्यान रखा जाएगा |

प्रश्न: गुरूजी मेरी एक चाची कर्क रोग (कैंसर) से पीड़ित है और उनकी कीमोथेरापी चिकित्सा चालू है | और अब कीमोथेरापी के कारण उनकी ह्रदय की मांसपेशियां बहुत कमजोर हो गयी है | क्या इस अवस्था में वे लंबी सुदर्शन क्रिया कर सकती है ?
श्री श्री रवि शंकर:
नहीं !! यह बेहतर होगा वे छोटी सुदर्शन क्रिया और प्राणायाम को करे और फिर देखे कि वे कैसा महसूस करती हैं |

प्रश्न: गुरूजी मृत्यु की परिकल्पना मुझे बहुत परेशान कर रही हैं | यदि मृत्यु अपरिहार्य हैं तो जीने का क्या अर्थ है | कृपया करके इस पर मुझे ज्ञान प्रदान करे |
श्री श्री रवि शंकर:
यदि कोई कली यह सोचने लगे कि मुझे तो मुरझाना ही है तो मै क्यों खिलू, तो आप क्या सोचेंगे | एक कली को खिलना होता है और इस दुनिया में खुशी और सुगंध देना होता हैं और फिर वह मुरझा जाती है , ठीक है | यदि वृक्ष सोचे कि फल को बीज़ ही बनना है, तो मैं फल को क्यों पैदा करू? प्रकृति ऐसी ही है, जब तक आप इस गृह पर है, यह देखे कि आप कितना मार्गदर्शन प्रदान कर सकते है |
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