योग और ध्यान पीड़ा से बचने के मार्ग हैं!!!


२७.१२.२०११ जर्मनी


प्रश्न: गुरूजी, जब भी मैं आपसे कोई प्रश्न पूछने वाला होता हूँ, अपने आप ही उसका उत्तर आ जाता है, क्या यह सत्य है या फिर सिर्फ मेरी कल्पना?
श्री श्री रविशंकर: अगर उत्तर सही होता है, तो यह सत्य है, और मेरा काफी काम बच जाता है|

प्रश्न: प्रिय गुरूजी, कभी कभी अहंकार मुझे कुछ करने पर बाध्य करता है, जो आवेशपूर्ण होता है और जिससे बाद में मुझे पछतावा होता है| इस पर कैसे नियंत्रण करूँ?
श्री श्री रविशंकर: अनुभव के द्वारा! आप अपने अहंकार को कब छोड़ पाते हैं? जब वह कष्टदायक हो जाता है| जब आपको बहुत कष्ट हो चुकता है, तब आप कहते हैं, कि बस, बहुत हो गया और तब वह अपने आप सहज ही छूट जाता है| या तो ज्ञान से, या कष्ट से, आप अपने छोटे मन से बाहर आ पाते हैं| अगर आपके पास ज्ञान है, और व्यापक दृष्टि है, तब आपको कष्ट के द्वारा जाने की आवश्यकता नहीं है| लेकिन ज्ञान के अभाव में, कष्ट और पीड़ा से आपका काम होगा, और आप उससे बाहर आ जायेंगे|

प्रश्न: प्रिय गुरूजी, मैं जानता हूँ, कि मेरे माता पिता मुझे बहुत प्रेम करते हैं, मगर वे बहुत स्नेहशील नहीं हैं| वे अपना स्नेह वैसे नहीं दिखाते जैसा कि मैं चाहता हूँ कि वे दिखाएँ| मैं किस तरह इन भावनाओं को महसूस करूँ और उनके व्यवहार से परेशान न होऊं?
श्री श्री रविशंकर: इसे बहुत अधिक महत्व न दें! आगे बढ़े! जीवन में ऐसी घटनाएं होती हैं, ऐसे मौके आते हैं| ऐसी नकारात्मकता आती है, मधुरता भी आती है, तो क्या! इनमें से कुछ भी हमेशा के लिए नहीं रहेगा, वे एक पल के लिए आती हैं, और चली जाती हैं| जैसे मैंने कहा, ज्ञान या योग एक ऐसा मार्ग है, जिसके द्वारा आप कष्ट से बच सकते हैं, भय से बच सकते हैं, और अप्रियता से भी बच सकते हैं| जब जीवन में ये नहीं होते, तब आपको पीड़ा दिखती है| इसीलिए, ईसाई धर्म में कहा है, कि कष्ट बहुत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि कष्ट के ही द्वारा आप अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं| जब आपको कष्ट होता है, तभी आप को समझ आती है, और तभी आप कोई पाठ सीखते हैं| पूर्व में, वे कहते हैं, कि कष्ट से बचा जा सकता है और उसकी कोई ज़रूरत नहीं है| जीवन आनंद है! क्या आप जानते हैं क्यों? क्योंकि, ज्ञान, योग और ध्यान ऐसे तरीकें हैं, जिनसे आने वाले कष्ट से बचा जा सकता है| इसलिए, अगर आप योग और ध्यान जानते हैं, तो पीड़ा से बचना मुश्किल नहीं है|

प्रश्न: पतंजलि ने कहा है, कि बिना साँस लिए भी प्राण पाना संभव है| इसके लिए किस प्रक्रिया या प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है? क्या इस जानकारी को प्राप्त करने का कोई स्रोत या निर्देश है?
श्री श्री रविशंकर: प्राण तो पहले से है ही| प्राण का सम्बन्ध साँस से है, मगर वे एक नहीं हैं| शरीर में ५ मुख्य प्राण और ५ अधीनस्थ प्राण हैं| हम उनके विवरण में फिर कभी जायेंगे|
वे साँस से जुड़े हुए हैं; वे वातावरण से जुड़े हुए हैं और वे तरंगों से भी जुड़े हुए हैं| इसीलिए हम कहते हैं, कि इस भोजन में सकारात्मक प्राण है, इस भोजन में नकारात्मक प्राण है तथा इस भोजन में तटस्थ प्राण है| प्राण ऊर्जा है| दुर्भाग्य से प्राण शब्द का अंग्रेजी में कोई अनुवाद नहीं है| प्राण ऊर्जा से बद्ध है और उस स्थान से भी जिसमे आप हैं| वह भोजन से बद्ध है, साँस से, तरंगों से और शरीर की ऊर्जा से| इसलिए प्राण केवल साँस नहीं है|

प्रश्न: प्रिय गुरूजी, क्या आप उन ऋषियों के बारे में और बात कर सकते हैं जिनका उल्लेख आप पिछले दो दिनों में कर रहें थे? वे कौन थे और उनके जीवन कैसे थे? क्या उनका सन्देश हमारे आधुनिक जीवन के लिए प्रासंगिक है?
श्री श्री रविशंकर: बिल्कुल! ऋषि वे ध्यानी थे, जो लाखों साल पहले गहरे ध्यान में थे| वे उन दिनों के वैज्ञानिक थे और उनके अंदर जांचने का मनोभाव (स्पिरिट ऑफ इंक्वायरी) था| आधुनिक दिनों के ऋषि और संत वैज्ञानिक थे| संत और वैज्ञानिक दो नहीं हैं, वे एक थे|
इसलिए, पुराने दिनों में, क्योंकि जानने के लिए बहुत से यंत्र नहीं थे, तो ऋषियों ने कहा, अगर मैं भी उसी तत्व से बना हूँ तो मैं अपने अंदर जाता हूँ और चेतना के उस सूक्ष्म स्तर से संचालन करता हूँ और वहां के सारे ज्ञान को डाउनलोड करता हूँ|’ आप ज्ञान को कैसे डाउनलोड करते हैं? आप उसे डाउनलोड कर सकते हैं, क्योंकि वह अंतरिक्ष में है| अगर वह अंतरिक्ष में नहीं होगा , तो आप अपने कंप्यूटर में कुछ भी कैसे डाउनलोड कर सकते हैं?
तीन तरह के अंतरिक्ष होते हैं, एक है भौतिक अंतरिक्ष, दूसरा है चेतना का अंतरिक्ष और तीसरा है उत्तम चेतना का अंतरिक्ष| तीन प्रकार के अंतरिक्ष हैं और वे हैं, चिद आकाश, चित आकाश और भूत आकाश’|
तो अपने अंदर के अंतरिक्ष को जानने का सम्बन्ध बाहरी अंतरिक्ष जानने से जुड़ा है, और बीच के स्थान से भी जहाँ ज्ञान का भंडार है, वे ऋषि उस स्तर से संचालन करते थे| इसीलिए आयुर्वेद के विज्ञान का जन्म हुआ| इसीलिए वैदिक दिनों में लोग कहते थे कि सारे ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं| वे Galileo नहीं थे जिन्होंने प्रथमतः ये ढूँढा था कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही है, ये कहना गलत होगा| यह तो उन ऋषियों ने कहा है, हज़ारों साल पहले, तब जब Galileo और Einsteinयंत्र भी नहीं थे|
उन्होंने कहा था कि यह सब एक ही तरंग क्रिया से बना है, एक ही ऊर्जा| इसलिए उन दिनों में वे कहते थे कि ब्रहस्पति के १२ चन्द्रमा हैं, और उन्होंने जो भी गणनाएं करी थीं वे आज भी उत्तम हैं| उन्होंने जिस कैलेंडर की गिनती करी थी, वह एकदम अचूक दिखाता है कि ग्रहण कब होगा, और यह कैलेंडर हज़ारों साल के लिए बना था|
यह इतनी सूक्ष्मता के साथ कैसे संभव था? बिल्कुल त्रुटिहीन मिनट और सेकंड, जो हज़ारों साल पहले लिखा गया था?
आज तो उन्होंने ब्रहस्पति का बारहवां चन्द्रमा अभी कुछ दसियों साल पहले ही ढूँढा है| लेकिन ऋषियों ने तो उसके बारे में हज़ारों साल पहले ही लिख दिया था| और यह भी कि शनि ग्रह को सूर्य की परिक्रमा करने में बिल्कुल ठीक ठीक कितना समय लगता है, इसका भी उल्लेख था| इसी तरह, आयुर्वेद में, कौन सी जड़ी बूटी शरीर के किस भाग के लिए उपयोगी है, और वह कौन सा रोग ठीक कर सकती है और वह कहाँ मिलेगी! यह सभी जानकारी, औषध की विवरणी ऋषियों द्वारा दी गयी थी| ऐलोपैथिक औषध की विवरणी को लिखने में तो बहुत साल लग गए थे और वह फिर भी उच्चतम नहीं है| लेकिन स्वास्थ्य और जड़ीबूटियों पर जो पुराने ज़माने के शास्त्र थे, वे आज तक उच्चतम हैं| यह बहुत ही अद्भुत है!
इसी तरह उन्होंने परमाणुओं, समय और अंतरिक्ष की गणना करी थी और कैसे यह ब्रह्माण्ड ५ तत्वों से बना है| यहाँ एक प्राध्यापक ने कहा, कि ४ ही तत्व हैं| मैंने कहा, नहीं, वे एक पांचवे तत्व के बारे में भी जानते हैं’| वे हैरान रह गए, और मैंने कहा ,हाँ, पांचवे तत्व की खोज हाल ही में हुई है’|
यह ज्ञान लंबे समय से यहाँ है, अंतरिक्ष वह पांचवा तत्व है| आज वे कहते हैं, कि बाकी चार तत्व कुछ नहीं हैं, केवल अंतरिक्ष ही वास्तविक है|
प्राचीन लोग यह जानते थे, इसीलिए अगर आप भगवान विष्णु की तस्वीर देखेंगे, तो वे नीले हैं| नीला मतलब आकाश, अंतरिक्ष|
भगवान विष्णु के पास एक चक्र है, जो अग्नि तत्व है, शंख जल तत्व है, पुष्प वायु तत्व है, और एक गदा है जो पृथ्वी तत्व है, इसलिए इन सभी तत्वों से निवृत्त हुआ जा सकता है| आप चक्र को फ़ेंक सकते हैं, आप शंख को फ़ेंक सकते हैं, आप पुष्प को फ़ेंक सकते हैं, कमल और गदा को, मगर आकाश, अंतरिक्ष को नहीं| यह हज़ारों साल पहले प्रतीकात्मक तरीक से चित्रित किया गया था|
तो वेदिक ऋषि गहरे ध्यान में बैठे और सभी ज्ञान को डाउनलोड कर लिया और उनकी चेतना में जो भी आता था, वे उसे बोलते रहते थे, और जिसे दर्ज कर लिया गया| आजकल वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करते हैं, और फिर समझते हैं| आजकल के वैज्ञानिक संत हैं, और उस ज़माने के संत वैज्ञानिक थे|

प्रश्न: प्रिय गुरूजी, स्वामी या ऋषि कैसे बना जाता है? क्या यह पश्चिमी लोगों के लिए संभव है और इसमें कितना समय लगता है और इसकी योग्यता क्या है?
श्री श्री रविशंकर: अगर आप इनमें से एक बनना चाहते हैं, तो बस आ जाईये| हम आपको योग्य बना देंगे| और हाँ, महिलाएं भी आ सकती हैं| जो इसके लिए आवेदन देना चाहते हैं, इसके लिए बहुत सी जगहें खाली है| स्वामी या ऋषि वह है, जो ज्ञान के लिए, और समाज के लिए अपने जीवन का समर्पण करना चाहते हैं| उनका अपनी कोई व्यक्तिगत ज़रूरत नहीं है, कोई व्यक्तिगत ध्येय नहीं है| बस केवल अपने जीवन को एक बड़े मकसद के लिए न्योछावर कर देना| अगर आप समाज सेवक हैं, तब आपको अपनी सारी इच्छाएं, भावनाएँ, पसंद, नापसंद की गठरी बना के समुन्दर में फ़ेंक देना चाहिए|
कोई पसंद नापसंद नहीं, कोई चाह नहीं, कोई द्वेष नहीं, बल्कि यह कि, मैं सबके उच्चतम हित के लिए उपलब्ध हूँ’| इस समर्पण के साथ आप आगे बढ़ें|
अगर आप तैयार हैं, तो यह जीवनचर्या होगी| आप आ सकते हैं, और समाज के लिए काम कर सकते हैं, या ईश्वर के लिए| बस इतना ही, एक बड़े मकसद के लिए अपने जीवन का समर्पण|
ऐसा करने से पहले दो बार ज़रा सोच लें| कल को आप आकर यह नहीं कह सकते, कि अब आपको यह पसंद नहीं है, या आप वह करना चाहते हैं| आप मात्र उपलब्ध हैं, कुछ अच्छा काम करने के लिए|

प्रश्न: प्रिय गुरूजी, अगर कोई शुरुआत नहीं है, और न ही कोई अंत है, और समय का भी अस्तित्व नहीं है, तो समय क्या है?
श्री श्री रविशंकर: पहले यह पता करिये कि किस चीज़ का अस्तित्व है?अगर समय का अस्तित्व नहीं है, तब आपका भी अस्तित्व नहीं है| किसका अस्तित्व है? अगर समय का अस्तित्व नहीं है, तब आपको उत्तर भी क्यों चाहिए? समझ गयें?

प्रश्न: क्या आप हमें सत युग (सुनहरा युग) की झलक दिखा सकते हैं, उस समय लोग कैसे रहते थे?
श्री श्री रविशंकर: सब के साथ मौन में रहना आप में से कितनों को अच्छा लगता है? कितने लोगों को अच्छा लगता हैं? आप बाहरी दुनिया में ऐसे नहीं रह सकते| यदि आप मौन में रहेंगे तो वे आपको यह कहकर परेशान करेंगे कि मौन में रहने की क्या आवश्यकता है| मैने एक सज्जन के बारे में सुना है, वह सिर्फ खड़े थे और उनके एक मित्र वहाँ से निकले और उनसे प्रश्न किया कि तुम यहाँ पर क्यों खड़े हो| उसने कहां कि मैं खड़ा क्यों नहीं रह सकता|
सड़क पर वह एक कुर्सी पर बैठे थे कि कोई आया और उसने प्रश्न किया तुम यहां पर क्यों बैठे हो?

उसने कहां मैं सैर के लिये जा रहा हूँ जब वह सैर कर रहा था कि कोई आया और प्रश्न किया तुम कहां जा रहे हो? तुम सैर क्यों कर रहे हो?| उसने कहां अब मुझे दौड़ना है और फिर दौड़ना शुरू किया और फिर किसी अन्य व्यक्ति ने प्रश्न किया, तुम दौड क्यों रहे हो?
फिर उसने कहां, हे भगवान, और फिर वह रोने लगा और फिर कोई आया और उसने प्रश्न किया तुम क्यों रो रहे हो?
उसने कहा,
हे भगवान, यह दुनिया मुझे बैठने, खड़े रहने, चलने, दौड़ने और रोने भी नहीं देती और मैं जो भी करता हूँ उस पर प्रश्न करती है कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो?|
लेकिन यहां पर आपको कोई परेशान नहीं करता कि
आप क्या और क्यों कर रहे हैं| आपको पूर्णता मौन में रहने की स्वतंत्रता होगी| यदि आप बात करेंगे तो लोग कहेंगे कि तुम बहुत ज्यादा बात करते हो और यदि आप मौन में होगे तो लोग कहेंगे, तुम मौन में हो यहां कोई कुछ नहीं पूछेगा बल्कि वे आप से प्रेम ही करेंगे| वे यहां आपके लिये ही हैं|
सबकुछ होगा और सब कुछ चलेगा बिना किसी शब्द को बोले| यहीं सत या सत्य युग है| आपकी इच्छायें होने से पहले ही पूरी हो जाती है, प्यास लगने से पहले पानी मिल जायेगा, यही सत या सत्य युग है|
त्रेता युग में प्यास लगने पर पानी तुरंत उपलब्ध हो जायेगा| द्वापर युग में यदि आपको प्यास लगी तो पानी प्राप्त करने के लिये आपको प्रयास करने होंगे और कलयुग में आप को प्यास लगेगी और आप के पूर्ण प्रयास के बावजूद आपको पानी की एक बूँद भी नहीं मिलेगी|


प्रश्न: कभी कभी मुझे स्वप्न में वह दिखता है जो भविष्य में घटता है| दुर्भाग्यपूर्ण मैं परीक्षा के पर्चों के बारे में स्वप्न नहीं देख पाता, इसलिये मुझे लगता है कि जीवन की कुछ घटनाएं उसी तरह से घटने के लिये पूर्वनिर्दिष्ट होती है| क्या यह सही है? क्या हमारे जीवन की सभी घटनाएं पूर्वनिर्दिष्ट होती हैं?
श्री श्री रविशंकर: सही है, कुछ घटनाएँ जो घटित होनी हैं वे पूर्वनिर्दिष्ट होती हैं और कुछ घटनाएं नहीं|

प्रश्न: कृपा क्या होती है और उसे कैसे आकर्षित करें?
श्री श्री रविशंकर : जब आपको कुछ आपके प्रयासों के बिना प्राप्त होता है, तो वह कृपा है| जब आपको आपके प्रयासों से और अधिक मिल जाता है, उसे भी कृपा कहते हैं|
आपको आपकी क्षमता से जो भी और अधिक मिला है, वह कृपा है| आपको जो भी कुछ बिना प्रयासों के प्राप्त हुआ और चूंकि आप उस उपहार को पाने अयोग्य थे, वह कृपा है| और कृपा कृतज्ञता से विकसित होती है|
जब आप मांग करते है फिर कोई कृपा नहीं होती, लेकिन जब आप आभार युक्त होते हैं तो यह बहुतायात में आती है|

प्रश्न : प्रिय गुरूजी, मैंने सुना है की २०१२ के अंत तक सामूहिक ज्ञानोदय होगा और बहुत सारे लोगों को ज्ञानोदय प्राप्त होगा, जैसे भगवान श्री कृष्ण के युग में हुआ था?
श्री श्री रविशंकर : यह न सोचें कि ज्ञानोदय बिजली के जैसे है| एक दिन कुछ आपके दिमाग से टकरायेगा और फिर आप जाकर ब्लू स्टार बन जायेंगे| अपने स्वयं के जीवन में देखें कि कैसे धीरे धीरे अंधकार दूर हुआ|
जब सूर्योदय होता है तो वह एकदम पूरी तरह से चमकने नहीं लगता| सूर्योदय के पूर्व भी आकाश में कुछ हल्का सा प्रकाश आता है फिर लाली आती है, और फिर उजाला होता है, और फिर पूरी तरह से चमकने लगता है|
उसी तरह आपके स्वयं के जीवन में आप अतीत को देखें कि जब आप इस पथ पर नहीं आये थे और आध्यात्मिक अभ्यास नहीं करते थे, तब आपका जीवन कैसा था? आपका मन कैसा था, आप कैसे थे और आप दुनिया को कैसे देखते थे? फिर अतीत में उसी अवस्था में जाएँ और उन्ही आँखों से स्वयं और दुनिया को देखें तो आपको आश्चर्य और हैरानी होगी कि आप वही व्यक्ति नहीं हैं|
आपकी सोच, भावनाएं, आचरण, अनुभूति, अभिव्यक्ति में परिवर्तन आया है, ऐसा हुआ है न? पहले जो कुछ छोटी छोटी बातें आपने चाही वे जब नहीं मिलती थीं तो आप कितने परेशान हो जाते थे| और अब कुछ बड़ी बातें भी जो आप चाहते हैं, और वे जब आपको नहीं मिलती तो भी आप परेशान नहीं होते, जो काफी कम बार ही होता है| पहले आपको छोटी बातों को होने के लिये संघर्ष करना पड़ता था और अब वह एक आशय के साथ तुरंत ही घटित हो जाती है|
आपमें से कितने लोगों के साथ ऐसा हुआ है? आपने कुछ इच्छा की और वह घटित हुई, इसी तरह ज्ञानोदय का भोर आपमें होता है| एक दिन आप देखेंगे कि किसी बात से कोई अंतर नहीं पड़ता, और आप खुश ही रहते हैं’| आप यह अनुभव करते हैं कि आप सिर्फ शरीर ही नहीं आत्मा हैं, और यह ज्ञान धीरे धीरे आता है| यह अचानक भी आ सकता है, यह किसी नाटकीय रूप में भी आ सकता है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है|
यह देखें कि कैसे धीरे धीरे आपका छोटी छोटी चीजों से लगाव कम हुआ है| आप अपने छोटे छोटे लगावों से कैसे दूर हो गये हैं| यदि आपकी लालसा, अरुचि और कलह में कमी आयी है फिर आप ज्ञानोदय के पथ पर हैं|
फिर एक दिन आप कह सकेंगे अब मुझे किसी से कुछ फर्क नहीं पड़ता| मैं बिना किसी शर्त के खुश हूँ, और मैं सभी से बिना शर्त प्रेम करता हूँ|
यदि आप ऐसा कह सकते हैं, तो ज्ञानोदय किसी भी दिन हो सकता हैं|

प्रश्न: मूड बनने का क्या कारण होता है?
श्री श्री रविशंकर: तरंगें किस कारण से बनती हैं? मन ही मूड है| लेकिन आप मन से और अधिक है|

प्रश्न: प्रिय गुरूजी, कुरान में कहा गया है, आप भगवान हैं, आप एक हैं, और आप अनंत हैं| आप पैदा नहीं होते और ना ही आपने किसी को जन्म दिया है| कोई भी कुछ भी आपके जैसा नहीं है| यह मुझे भ्रमित कर रहा है खास तौर पर कोई भी कुछ भी आपके जैसा नहीं है| कृपया करके इस के बारे में कुछ बताएं?
श्री श्री रविशंकर: यही सबसे श्रेष्ठ है| और यही बात वेदों में भी कही गयी है|
संस्कृत में कहा गया है एकम - आप एक है और आप अनंत है|
आप पैदा नहीं हुये हैं और आपने किसी को जन्म नहीं दिया| जब किसी का जन्म नहीं हुआ तो उसकी मृत्यु भी नहीं होगी, आप अनंत हैं|
चेतना और दिव्यता का यही विवरण है|
दिव्यता सिर्फ एक है, अवकाश सिर्फ एक है| जब उसका कभी जन्म ही नहीं होता तो वह अनंत है; यह शांति, प्रेम, आनंद और परमानन्द है, और आप सभी यहीं हैं|
एक स्तर पर कहा जाता है कि चेतना शरीर नहीं है| एक अन्य उच्च स्तर पर कहा जाता है कि सब कुछ चेतना है, यहाँ तक जिसका जन्म हुआ है| एक और आगे स्तर पर कहा गया है कि चेतना का कभी जन्म नहीं हुआ और उसने कुछ सृजन नहीं किया|
एक अन्य स्तर पर कहा गया है कि चेतना ही सब कुछ है और जब शरीर सब कुछ से बना है तो सब कुछ ही चेतना है|
चेतना का विवरण करने के दो तरीके होते हैं; वह आकाश के जैसे खाली है और सागर के जैसे पूर्ण है|
कुरान ने खालीपान या निराकार स्वरूप पर जोर दिया है|
वेद में उन्होंने दोनों आकार और निराकार स्वरूप को लिया है| संपूर्ण निराकार भी आकार का ही स्वरूप है, प्रत्येक बूँद जो पानी से निकली है; वह भी पानी का ही हिस्सा हैं|


प्रश्न: गुरूजी, मेरे एक मित्र ने ६ लोगों के समक्ष मुझे थप्पड़ मारा| मुझे कैसे प्रतिक्रिया देनी चाहिये और मुझे उसके साथ क्या करना चाहिये?
श्री श्री रविशंकर: यह वैसे भी हो चुका है|
कृत्य उस क्षण पर स्वाभाविक है| जब आपके मित्र ने आपको थप्पड़ मारा तो आपने क्या किया? क्या आप मुस्कुरा पाये और क्या आप व्यक्ति की आँखों में देख सके? यह उससे बड़ा थप्पड़ है|
लेकिन यदि आप परेशान हुये या बदले में आपने भी उसे थप्पड़ मारा तो यह भिन्न विषय है| इसलिये आपने अपनी प्रतिक्रिया दे दी है और जो भी प्रतिक्रिया थी उस पर पछतावा न करें| सिर्फ आगे बढ़ें|
यदि आपने प्रतिक्रिया नहीं दी होती तो उस व्यक्ति को बहुत बुरा लगता|
यदि आपने उसे बदले थप्पड़ मारा होगा तो वह गुस्से में जूझ रहा होगा और आपको एक और थप्पड़ मारने का प्रयास करता जो आपने अतिरिक्त थप्पड़ उसे मारा है|
दोनों स्तिथि में घटनाओं को बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिये| जीवन में इस तरह की घटनाएं घटती हैं| या तो आप अत्यंत करुणामय हैं या आप उसे एक पाठ पढाना चाहते हैं या उसे अनदेखा करें, यह आप पर ही निर्भर करता है कि ऐसी परिस्थिति में आपको क्या करना है|
मैं कहूँगा पहले तो आप उसे अनदेखा करें, फिर उसे पाठ पढाएं और फिर तीसरी बार उसे दंडित करे|

प्रश्न: आदर्श भक्त कौन है?
श्री श्री रविशंकर: आप, जो यह प्रश्न कर रहा है|
अपने स्वयं के प्रति कठोर न बनें और अपनी भक्ति पर प्रश्न न उठायें| मैं तो कहूँगा कि आपको अपनी भक्ति पर कभी भी संदेह नहीं करना चाहिये| यह मान कर चलें कि आप समर्पित हैं| कोई भी शिशु अपनी माँ से यह नहीं पूछता कि क्या आप मुझ से प्रेम करती हो| माँ अपने शिशु से यह नहीं पूछती कि क्या तुम मुझ से प्रेम करते हो?|
माँ को शिशु के लिये और शिशु को माँ के लिये प्रेम के अलावा कोई विकल्प ही नहीं होता| उसी तरह भक्ति आप सभी में अंतर्निहित होती है|
कभी कभी उस पर अज्ञानता, झिझक, संदेह और असुरक्षा की परत पड़ी होती है| आपकी अपनी असुरक्षा आपकी भक्ति को ढक लेती है| यह सिर्फ समय की बात है कि अज्ञानता और अहंकार की पट्टी को निकलने का समय देना चाहिये, फिर भीतर का भक्त जाग जायेगा| 


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