बुद्ध, संघ और धर्म


परम पूज्य श्री श्री रविशंकर जी के द्वारा
आध्यात्मिक पथ पर तीन तत्व होते हैं :- बुद्ध - गुरू या ज्ञानोदय की उपस्थिति, संघ - समुदाय और धर्म - आपका सही स्वभाव। प्राकृतिक रूप से आपका जीवन तभी खिलता है जब इन तीनों तत्वों के मध्य में संतुलन होता है।
बुद्ध या गुरू एक प्रवेश द्वार है; जब आप उष्ण सूर्य की ऊर्जा के रास्ते में होते हैं या जब आप बारिश या आंधी में फँस जाते हैं, तब आपको घर की या द्वार की आवश्यकता पड़ती है। क्या आपने इस पर ध्यान दिया कि उस वक्त वह द्वार कितना आकर्षक और सुंदर लगता है? उस समय वह विश्व में किसी भी आनंद से अधिक महसूस होता है। उसी तरह जब आप अपने गुरू के जितने नजदीक जाते हैं तो आप अधिक सौम्य, नवीनतम और अधिक प्रेम महसूस करते हैं। कुछ भी आपको इस विश्व में उतनी शांति, आनंद और खुशी नहीं दे सकता। ज्ञानोदय से आप कभी भी थक नहीं सकते। वह उस गहराई के जैसा है जिसमें कोई तल नहीं है।
जब आप उस द्वार पर आते हैं और उसमें प्रवेश करते हैं तो सारा विश्व काफी अधिक सुंदर प्रतीत होने लगता है| वह ऐसी जगह है जो प्रेम, आनंद, सहयोग, करूणा और सद्गुण से भरी हुई होती है। उस द्वार से देखने पर वहां कोई भय नहीं है। जब आप अपने घर के भीतर से आंधी, तूफान या तीव्र सूर्य को देखते हैं तो भी आप आराम महसूस करते हैं क्योंकि आप अपने घर में होते हैं इससे एक सुरक्षा, संपूर्णता और आनंद की अनुभूति होती है। गुरू के होने का यही उद्देश्य है।
दूसरा तत्व हैं संघ याने की समूह। कुछ दूरी से समूह काफी आकर्षक लगता है परंतु जब आप उसके करीब जाते हैं तो यह आपके सारे अंगों को धक्का देता है और यह आपके भीतर के अनावश्यक तत्वों को बाहर निकाल देता है। यदि आप सोचते है कि समूह काफी अच्छा है या समूह काफी बुरा है तो इसका अर्थ है कि आप समूह के साथ संपूर्णता में नहीं है। जब आप अपने आप को समूह का संपूर्ण हिस्सा मानेंगे तो फिर आप देखेंगे कि कुछ कलह हो जाएगी। परंतु यदि आप वे हैं जो समूह बनाता है - यदि आप इतने अच्छे हैं, तो फिर आपका समूह भी अच्छा होगा।
संघ का स्वभाव बुद्ध से विपरीत होता है। बुद्ध आपके मन को एक तरफ केन्द्रित करता है| बहुत लोगों की वजह से संघ आपके मन को फैला सकता है और उसके टुकड़े कर सकता है, जब आपको इसकी आदत पड़ जाती है तो उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है। यह संघ का स्वभाव है। फिर भी यह काफी सहायक है। यदि हर समय यह विकर्षक है तो कोई भी संघ का हिस्सा नहीं हो सकता। कभी भी अभिलाषा या घृणा ना करें। कई बार आप बुद्ध की अभिलाषा करते हैं और संघ से घृणा करते हैं और आप उसे बदलने का प्रयास करते हैं; परंतु संघ और बुद्ध को बदलने से, आप स्वयं नहीं बदलने वाले हैं। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि आप स्वयं के गहरे केन्द्र की तरफ आ जाएँ जिसका अर्थ है कि आप अपना धर्म खोज लें। यह तीसरा तत्व है। धर्म क्या है? धर्म का अर्थ है मध्य में रहना। अन्त्य छोर के तरफ न जाना आपका स्वभाव है। संतुलन में रहना, और अपने दिल की गहराई से मुस्कुराते रहना, यह पूरा आस्तित्व जैसा है उसे वैसे ही संपूर्णता से स्वीकार करना आपका स्वभाव है। यह समझना कि मुझे इस क्षण ने क्या दिया है और मैं उसे वैसे ही स्वीकार कर रहा हूँ। इस क्षण के प्रति और सभी क्षणों के प्रति गहरा स्वीकार धर्म है।
जब यह आ जाता है तो कोई समस्या ही नहीं रह जाती। सारी समस्यायें आपके मन से ही आती हैं; सारी नकारात्मकता भी आपके मन से ही आती है। यह विश्व बुरा नहीं हैहम स्वयं ही अपनी दुनिया कुरूप या सुंदर बनाते हैं। इसीलिये जब आप अपने सही स्वभाव या धर्म के साथ होते हैं तो आप विश्व और दैव पर आरोप नहीं लगायेंगे। मानव मन की कठिनाई यह है कि वह सारे विश्व का हिस्सा नहीं हो सकता और इसीलिये वह दैव का भी हिस्सा नहीं बन पाता। वह दैव से दूरी महसूस करता है। धर्म आपको मध्य में रखते हुए विश्व में सुखी रखता है। यह आपको विश्व में सहयोग देने में सहायता देता है जिससे आप दैव के साथ सुखी होते हैं और यह महसूस करते हैं कि आप दैव का हिस्सा हैं।
यह सही धर्म है।
The Art of living © The Art of Living Foundation