शिक्षा पर और अधिक जोर


परम पूज्य श्री श्री रविशंकर के द्वारा
सिर्फ शिक्षा ही अन्तर्निहित गुण को पोषण दे सकती है और सही बुद्धिमत्ता प्रदान कर सकती है। आज हर पालक की यह चिंता है कि उनके बच्चे अच्छे शिक्षित इंसान बनें जिनके जीवन में कुछ मूल्य हों और वे खुश रहें परंतु कहीं तो इस रेखा की कड़ी में खुशी गायब होती हुई प्रतीत हो रही है। हम खुशी का उद्देश्य भूल रहे हैं।
एक शिशु की कितनी सुंदर मुस्कुराहट होती है। वह कितना आनंद एवं मित्रता को दर्शाता है परंतु उसी शिशु का चेहरा जब हम देखते हैं कि वह स्कूल या कॉलेज पास हो कर निकलता है, उसके चेहरे पर वह आनंद, मासूमियत और शिशु रहते हुए उसकी झलकती हुई सुदंरता, क्या वह रह पाती है? जब हम बड़े होने लगते हैं उस शिशु की मासूमियत कों बचा के रखने का कोई तरीका है? यदि हमने वह हासिल कर लिया है तो मने सचमुच कुछ शानदार हासिल किया हैं, क्योंकि मासूमियत अपने साथ कुछ सुन्दरता को भी लेकर आती है।
क्या हम ऐसी शिक्षा प्रणाली नहीं ला सकते जिसमें यह सुनिश्चित हो सके कि हर शिशु मित्रपूर्ण बनना सीख सके? आज कल यदि हम किसी बच्चे से पूछे कि आप के कितने मित्र है तो वो अपनी उगंलियों को गिनेगा; एक, दो, तीन, चार, पाँच पर उससे अधिक नहीं। यदि आप अपने कक्षा के ४० से ५० बच्चों से मित्रपूर्ण नहीं रह सकते तो आप इस ग्रह के छै अरब से अधिक लोगों कैसे मित्रपूर्ण होगें? स्वार्थपूर्ण शिक्षा की खोज में हमने मित्रपूर्ण रहने कि मूल प्रवृत्ति को कही पर छोड़ दिया है।
अब समय आ गया कि हम सब को साथ में आकर शिक्षा कि प्रतिष्ठा, सम्मान व गरिमा को पहचान कर पुनः स्थापित करने के लिए नये तरीके और साधन की पहचान करें जो शिक्षा को प्राचीन काल में प्राप्त था। व्यापक दिमाग की शिक्षा के साथ गर्मादिली की आज आवश्यकता है। अच्छी शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद वह किसी काम की नहीं यदि वह व्यक्ति बाकी सब लोगों को नीचा दिखाने लगता है। एक अच्छा शिक्षित व्यक्ति वह होता है जो मित्रपूर्ण और करूणामय हो और सब के बीच में कुछ भी नहीं हो।
अप्रचलित नियम, सिद्धांत और शिक्षा की प्राणाली और ज्ञान के प्रसारण की पद्धति में बदलाव की आवश्यकता है। आज कल आप को पहाड़ों को याद करने की जरूरत नहीं है यदि आज भी हमारे स्कूल और कालेजों में भी पुरानी पद्धति का अनुगमन किया जाता है तो वह समय की बर्बादी है। आज इस कम्प्यूटर के युग में हम इतिहास के बारे में एक ही क्षण में जान सकतें है उसके बाबजूद बच्चें यह याद करने में घन्टे लगा देते है कि विद्रोह कब हुआ था।
जब कोई बालक या बलिका कॉलेज तक पहुंचता है तो वह पहले से ही थका हुआ होता है वह अपने पीठ पर गधे जैसे बोझा ढोता है, अप्रसंगिक विषयों पर भारी किताबों का बोझ। इस प्रणाली में बदलाव कि आवश्यकता है हमको शिशु की क्षमता को सवारने की आवश्यकता है जिससे वह अधिक सीख सकें व अधिक समझ सकें। यह दुख का विषय है कि हमने अपनी चेतना को बढ़ाने के लिए कुछ नहीं किया उसी समय पर दृश्य और श्रव्य दृश्य मीडिया, सिनेमा और विडियो गेम के द्वारा सूचना की बमबारी होती है। यह किसी के मन पर ऐसा दबाव लाता है यह बच्चों में पागलपन और ध्यान की कमी का सिंड्रोम उत्पन्न करता है क्योंकि दिमाग उस सूचना को सीख कर पुनरूत्पादन नहीं कर पाता है।
हमारी शिक्षा की प्रणाली में बदलाब की आवश्यकता है जिससे आवाछिंत सूचना को पाठ्यक्रम से निकाला जा सकें। सृजनात्मक शिक्षा की प्रणाली बच्चों का व्यक्तित्व बनाने में सहायक है। सृजनात्मक क्रीड़ा और प्रणायाम बच्चों के सीखने की प्रक्र्रिया का हिस्सा होना चाहिए।
एक अच्छी शिक्षा की प्रणाली आत्मसम्मान और सृजनात्मकता कि शिक्षा देती है। हमें शिक्षा में आत्मविश्वास व्यापक दृष्टि कोण और जड़ों को गहरा करने की शिक्षा देनी है। शिक्षा प्रणाली लोगों को धर्मान्ध बनाने से रोकना चाहिये। एक सही शिक्षा वह है जो मन को सवारती है जो मुक्त है जिसमें किसी भी चीज के लिए पागलपन नहीं उत्पन्न होता है और जो भूतकाल के प्रति क्रोधित न हो और भविष्यकाल के लिए भी क्रोधित न हो।
हर कोई जिसका शिक्षा में योगदान है उसे सम्पूर्ण स्वस्थ शिक्षा प्रणाली पर विचार करना चाहिये जिससे स्वाभाविक रूप से अन्तर निहित गुण और मूल्य को संभाल के रखा जा सके। शिक्षा में जीवन के हर पहलू का ध्यान दिया जाना चाहिये। प्राचीन शिक्षा को सवांरते हुये आधुनिक की खोज करते रहना ही इसका सू़त्र है।


The Art of living © The Art of Living Foundation