मन और तपस!!!

कभी कभी मन को नियंत्रित करने के लिए विशेष ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है। यहाँ पर तपस और तपस्या का प्रयोग हो सकता है। तपस या तपस्या क्या है? इस प्रक्रिया को कुछ निश्चित अवधि के लिए करना होता है। जब मन बहुत अपवित्र हो जाता है तो एक, तीन, पाँच या सात दिनों के लिये उपवास करें और सिर्फ पानी ग्रहण करें। फल और पानी के साथ उपवास, भगवान के सम्मान में तारीफ, भजन भी तपस में आता है। ऐसा कहा जाता है कि प्राणायाम के बराबर कोई तपस्या नहीं है। आप देखें कि आप प्राणायाम को बैठ कर करने में कितने बोर हो जाते हैं। परन्तु उसके बराबर कोई तपस नहीं है। ऐसा कुछ भी नहीं जो उसके बराबर है और मन को पवित्र कर सके।
मन को पवित्र करने का एक और तरीका है कि भगवान के नाम को याद करें, सत्संग को सुनें और गायें। ऐसा करने से मन पवित्र और स्पष्ट हो जाता है। यही हमारा सही स्वभाव है। यदि आप का मन खराब हो जाए तो आपको बुरा लगता है। यदि आप को उस के लिए बुरा लगता है तो मन और भी अपवित्र महसूस करने लगता है। आप यह सोचकर स्वंय की आलोचना करने लगते हैं कि मुझ में कुछ कमी है, कुछ ठीक नहीं है। दोष की भावना स्थिर हो जाती है। आपको स्वयं की आलोचना में नहीं फंसना है या दोष को भी नहीं पालना है। आप को इस स्थिर विचार से सोचना चाहिए कि मेरा स्वभाव पवित्र है और आप को रोज ध्यान करते रहना चाहिए
यह जरुरी है कि हम अपने विरोधाभास स्वरुप का विकास करें क्योंकि वे हमारा हर परिस्थिति में सहयोग देते हैं। सिर्फ एक का विकास और दूसरे छोड़ देने से हम असंतुलित हो जायेंगे और विभिन्न प्रकार के अनुभव जो हमें जीवन देता है उससे निपटने के लिए सक्षम नहीं रह जायेंगे। साधना, निरंतर सेवा और निरंतर ज्ञान के अध्ययन और अभ्यास से हमारे सख्त और कठोर मन और सौम्य और कोमल मन का विकास होता है। हमारी मन:स्थिति में इन दोनों परिस्थितियों के बीच ढालने की क्षमता विकसित होती है। यह क्षमता इस मार्ग पर चलने के लिए बहुमूल्य है।
हम इस हुनर की परिपक्वता एक दिन में नहीं ला सकते। परन्तु अपने आप से आशा कर सकते हैं कि इसमें परिपक्वता लाने के लिए हम प्रतिबद्ध होकर आज ही से कदम बढ़ायें। इस मार्ग के साधक के लिए और कोई विकल्प नहीं है। इसलिए अपने आप को चेतना और ज्ञान के साथ भीतर से बहने दें। और तब तक आप जान लेंगे की मन प्रेम और ज्ञान का दर्पण है जो आप स्वयं हैं।



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