भगवान श्रीकृष्ण - प्रेम के प्रतीक

१०
२०१२
अगस्त
बैंगलुरु आश्रम, भारत
आज श्रीकृष्ण का जन्मदिन है, और पूरे भारत वर्ष में लोग इसे मना रहे हैं|
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था, मेरा न तो कभी जन्म होता है, और न ही कभी मृत्यु होती है| मैं अजन्मा हूँ| जिसका कभी जन्म ही नहीं हुआ, उसके जन्मदिन का उत्सव मनाना यह बहुत ही रोचक बात है|
भगवान श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लेने से पहले, श्रीकृष्ण ने एक और जन्म लिया था| उस पूर्व जन्म में, वे कपिल मुनि के नाम से जाने गए थे| कपिल मुनि के जन्म में, भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माँ को आत्म ज्ञान दिया था, सांख्य-योग का ज्ञान दिया था| तो, भगवान श्रीकृष्ण के जन्म से पहले, उन्होंने कपिल मुनि के रूप  में अवतार लिया था|
अब, एक माँ का प्रेम तो ऐसा होता है, कि वह चाहती है, कि हर जन्म में उसका वही बच्चा हो| तो इसलिए, आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी, अपने बच्चे से उसका मोह नहीं छूटा| इसीलिये, अगले जन्म में भी, वे श्रीकृष्ण की माँ यशोदा बनकर जन्मीं और भगवान श्रीकृष्ण ने पुनः जन्म लिया|
कपिल मुनि बनकर, उन्होंने अपनी माँ को आत्म-ज्ञान दिया, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण बनकर उन्होंने उन्हें बहुत सारा प्रेम और स्नेह दिया, आत्म-ज्ञान नहीं| तो इस तरह, एक जन्म में उन्होंने केवल आत्म-ज्ञान दिया, और दूसरे जन्म में केवल प्रेम दिया| यशोदा को उन्होंने किसी भी तरह का आत्म-ज्ञान नहीं दिया| वे उनके साथ खेले और इतनी सारी शैतानियाँ करीं| इसलिए आज तो शैतानियों का दिन है| (सब हँसते हैं)
जिस जन्म में ज्ञान है, प्रेम है, और नटखटपन ये तीनों साथ में आते हैं, वही भगवान श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है| इसलिए, आज श्रीकृष्ण के जन्मदिन पर आप सब ये संकल्प लें कि आप भगवद्गीता पढ़ेंगे|
आपमें से कितने लोगों ने भगवद्गीता नहीं पढ़ी है? (बहुत लोग अपना हाथ उठाते हैं) देखिये! एक काम करते हैं| हम आज से ही गीता पढ़ना शुरू कर देंगे| उसके सरल अनुवाद को पढ़िए, और जितना समझ सकते हैं, उतना समझें| अगर आपको समझ में नहीं भी आती है, तब भी कोई बात नहीं, कम से कम एक बार पढ़ डालिए| अपने पूरे जीवन के दौरान, आपको बार बार गीता के पन्ने पलटने चाहिये, सिर्फ तभी आप उसे पूरी तरह से समझ पाएंगे|
जैसे जैसे, मन और बुद्धि की परिपक्वता बढ़ती है, वैसे वैसे भगवद्गीता भी समझ में आने लगती है| तो, आज कृतिका नक्षत्र भी बहुत तेजवान और सक्रीय है| आज शुक्रवार भी है| आज अष्टमी भी है, और जन्माष्टमी भी है| इन सबका साथ में होना बहुत शुभ है|
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, सेनानीनामहं स्कन्दः सेना के जनरलों में मैं ही कार्तिकेय हूँ|
मुनियों में मैं ही कपिल मुनि हूँ|
ऋषियों में मैं ही वेद व्यास हूँ|
पांडवों में मैं ही अर्जुन हूँ|
तो वे कहते हैं, कि वे ही कृष्ण भी हैं, और वे ही अर्जुन भी हैं|
अगर कोई भगवद्गीता के दसवें अध्याय को समझ पाए, तो इसका अर्थ है, कि वे अद्वैता के ज्ञान में सिद्ध हो गए|
इसे विभुति योग कहते हैं| फिर उनका जीवन विभूति से संपन्न हो जाता है|
विभूति सिर्फ वह पवित्र भस्म नहीं है, जिसे हम माथे पर लगाते हैं| विभुति का अर्थ चमत्कार भी होता है|
भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में बहुत से चमत्कार हुए| लेकिन, साथ ही साथ उनको एक वरदान भी मिला हुआ था, या यूँ कहिये, कि वह एक अभिशाप था| जिस पल कोई चमत्कार होता था, तो लोग फ़ौरन ही एक साल के लिए उसे भूल जाते थे| तो मान लीजिए, आज कोई चमत्कार हुआ, तो सब उसके बारे में उसी क्षण भूल जायेंगे, और उन्हें वह केवल एक साल के बाद ही याद आएगा! क्या आपने इस बारे में सुना है?
यह भगवद्गीता में उल्लेखित है|
ऐसा कहते हैं, कि जैसे ही लोग भगवान का कोई तेजस्वी प्रदर्शन देखते थे, उसके अगले ही मिनट वे उसे भूल जाते थे|
तो जब भगवान श्रीकृष्ण ने कालिया (बहुत सिर वाला नाग) के सिर पर नृत्य किया, तो ये सब देखने के बाद जब लोग वापस अपने घर पहुंचे, तो वे सब उस चमत्कार के बारे में भूल गए, और अपने अपने कामों में लग गए, जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं|
ऐसी आज्ञा थी, कि उनके चमत्कारों को लोग भूल जायेंगे, और एक साल के बाद ही याद आ पाएंगे| कुछ कहते हैं, कि यह एक वरदान था, और कुछ कहते हैं, कि ये भगवान ब्रह्मा के द्वारा दिया गया कोई श्राप था, कि किसी चमत्कार के बाद लोगों की स्मृति पर पर्दा पड़ जाएगा|
तो जब भी गोकुल पर कोई विपदा आती थी, तो सभी गांववाले मिलकर ओम् नमो नारायण का जाप करते थे, और भगवान नारायण से प्रार्थना करते थे, कि वे बाल श्रीकृष्ण की रक्षा करें, और उन्हें किसी भी प्रकार की हानि होने से बचाएँ|
तो वृन्दावन में सभी लोग प्रार्थना करते थे, और ओम् नमो नारायण का जाप करते थे, यदुकुल नंदन की रक्षा के लिए|
वे भगवान शिव से भी बाल कृष्ण की रक्षा और भलाई के लिए प्रार्थना करते थे|
तो जितने भी चमत्कार हुए थे, फिर वह चाहे, शकटासुर का वध हो, या पूतना का विनाश, इन सबको लोग कुछ ही पलों में भूल जाते थे, और वह उन्हें तभी याद आता था, जब एक वर्ष बीत जाता था| परिणामस्वरूप, लोग हमेशा पुराने किस्सों को याद करते रहते थे|
तो ये कहानी है भगवद्गीता में|
श्रीमदभगवद्गीता को पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है, मानो भगवान के साथ बिताए वो दिन सबके लिए बहुत मौज-मस्ती से भरे थे, खुशियों, प्रेम और भक्ति से ओत-प्रोत थे| लेकिन इन सबके साथ, बहुत सा वैराग्य भी था|
अगर आप वैराग्य को समझना चाहते हैं, तो भगवद्गीता का पाठ करें|
भगवद्गीता वैराग्य और अनुराग का, ज्ञान और भक्ति का - एक बहुत ही अनूठा और दुर्लभ संगम है| हालाँकि ये देखने में बहुत विपरीत मालूम पड़ते हैं|
तो, भगवान श्रीकृष्ण सबके आकर्षण-केन्द्र थे| लेकिन, भगवान श्रीकृष्ण के साथ भगवान बलराम भी थे| और वे महान शक्ति और बल के प्रतीक थे| लोग अधिकतर महा-शक्ति से भयभीत रहते हैं|
आमतौर पर, जहाँ आकर्षण और प्रेम होता है, वहां आप दुर्बलता और असहायता महसूस करते हैं| जबकि प्रेम ही सबसे बड़ा बल है, तब भी वह व्यक्ति को दुर्बल महसूस कराता है| और यदि कोई प्रेम से उपजी दुर्बलता को ही देखता रह जाता है, तो वह इससे दूर भागता है| तब यह घृणा में बदल जाता है|
तो भगवान श्रीकृष्ण आकर्षण के केन्द्र हैं, प्रेम का फ़व्वारा हैं, जबकि भगवान बलराम प्रतिष्ठा और शक्ति के प्रतीक हैं|
और तो और, भगवान श्रीकृष्ण राधा के बिना नहीं रह सकते थे| इसीलिये मैंने पहले कहा, कि प्रेम में दुर्बलता भी होती हैं|
राधा एक शक्ति हैं, राधा कोई व्यक्ति नहीं थीं| वे भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति को दर्शाती हैं, प्रेम की शक्ति को दर्शाती हैं| और भगवान बलराम उस पराक्रम के प्रतीक हैं, जो भगवान श्रीकृष्ण के साथ चलता है, जहाँ वे जाए, वहीँ उनके साथ हैं|
ऐसा कहते हैं, निर्बल के बलराम| ठीक वैसे ही जैसे भगवान राम ने दुर्बल और असहाय को आश्रय दिया, उसी तरह भगवान बलराम भी हैं, जो भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति के सूचक हैं, और सदैव उनके साथ हैं|
जहाँ प्रेम है, वहां तड़प भी है| जहाँ तड़प है, वहां निःसंदेह प्रेम भी होगा| ये दोनों साथ में चलते हीं| तड़प है, क्योंकि प्रेम है| उसी प्रकार, प्रेम अपने साथ असीम शक्ति लेकर आता है भगवान बलराम|
भगवान बलराम ने बहुत बार पृथ्वी के चक्कर लगाये, और पृथ्वी के कण-कण से स्वयं को जोड़ लिया| लेकिन भगवान श्रीकृष्ण जहाँ थे, वहीँ रहें, मुस्कुराते रहें, और पूरी पृथ्वी उनके चारों ओर चक्कर लगाती रही|
किसी भी व्यक्ति को बल प्राप्त करने के लिए श्रम करना पड़ता है, लेकिन प्रेम के लिए कहीं भी जाने की या कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं पड़ती| आप जहाँ भी हैं, आप वहीँ प्रेम में डूब सकते हैं|
भगवान बलराम परिश्रम और कड़ी मेहनत के प्रतीक हैं, और दूसरी ओर भगवान श्रीकृष्ण विश्राम के प्रतीक हैं| और उसी विश्राम में आपके अंदर प्रेम पनपता हैं| विश्राम में ही राम है|
श्रम करने से प्रेम प्राप्त नहीं हो सकता, कुछ न करने से प्रेम प्राप्त हो सकता है| लेकिन, शक्ति श्रम करने से और मेहनत करने से ही मिलती है| सिर्फ बैठकर और कुछ न करने से आपको प्रबल शक्ति प्राप्त नहीं हो सकती|
किसी भी क्षेत्र में योग्यता या कुशलता प्राप्त करने के लिए, आपको कड़ी मेहनत करनी होती हैं, परिश्रम करना पड़ता है| अगर आप सितार बजाना चाहते हैं, तो आपको प्रतिदिन दो घंटे रियाज़ कंरना पड़ेगा| अगर आप बांसुरी बजाना चाहते हैं, तब भी आपको अभ्यास करना पड़ेगा| आपको अपने शरीर को शक्तिशाली बनाने के लिए नियमित तौर से व्यायाम करना पड़ेगा| इसलिए, कोई भी शक्ति प्राप्त करने के लिए आपको किसी भी तरह का श्रम तो करना ही होगा|
यहाँ तक कि, ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी आपको श्रम करना पड़ेगा| लेकिन, प्रेम के लिए, आपको कोई भी श्रम करने की आवश्यकता नहीं है| आप सिर्फ विश्राम करिये, और स्वयं में ही लीन हो जाईये|
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, धर्माविरुद्धो भूतेषु कमोस्मी भारतार्शभा
आपके भीतर जो भी इच्छाएं उठती हैं, उन्हें मुझसे ही प्रेरित समझिए, जब तक कि वे धर्म के विरुद्ध नहीं हैं, या धर्म का विनाश नहीं करती हैं| ऐसी कोई भी इच्छा जो धर्म के विरुद्ध है, वह मैं नहीं हूँ| यह बहुत ही आश्चर्यजनक बात है|
यदि आप धर्म के अनुरूप कर्म करते हैं, यदि आप स्वधर्म के अनुसार कर्म करते हैं, तब आपके भीतर उठने वाली सारी पवित्र इच्छाएं मुझसे (भगवान श्रीकृष्ण से) ही पनपी हैं| मैं ही उन सब इच्छाओं का स्त्रोत हूँ, जो तुम्हारे अंदर उठ रहीं हैं और जो धार्मिक अभिलाषा रखती हैं|
यह बहुत ही आश्चर्यजनक और अनोखी बात है|
वे कहते हैं, मैं शक्तिशाली की शक्ति हूँ; आप जिन्हें सुन्दर पाते हैं मैं ही उनका सौंदर्य हूँ| किसी अन्य व्यक्ति में आप जो भी अच्छे गुण पाते हैं, वे सब मुझसे ही आते हैं
वे ऐसा क्यों कह रहें हैं? ऐसा इसलिए, क्योंकि मन का स्वभाव होता है कि उसे जहाँ भी सुंदरता दिखती है, वह वही भागता है| यदि किसी में अत्यधिक धन या असीम शक्ति दिखती है, तो मन वहां भागता है|
तो इसलिए, मन को यहाँ-वहां से इकठ्ठा कर, वापस आत्मा की ओर लाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, तुम जो भी कुछ देखते हो, उस सबमें मुझे ही देखो| यदि कहीं भी, किसी के भी अंदर तुम्हें कोई भी महानता दिखती है, तो वह मेरे ही कारण है, मैं ही उसके पीछे की शक्ति हूँ, और मैं यहाँ तुम्हारे सामने हूँ|
इधर उधर भटकने वाले, डगमगाने वाले मन को इकठ्ठा करना और उसका ध्यान पुनः अपनी आत्मा पर केंद्रित करना वह आत्मा जो सभी शक्तियों की स्रोत है यही विभूति भगवान श्रीकृष्ण ने सिद्धि-प्राप्त करने के लिए दी है|
भगवान कृष्ण देवी की पूजा करते थे| यह दुर्गा सप्तशती में उल्लेखित है|
आपमें से कितने लोगों ने ये बात सुनी है?
रूपम देहि जयम देहि यशो देहि द्विष जाहि ये श्लोक दुर्गा सप्तशती के अर्गला स्त्रोतम में से प्राप्त हुए हैं, और जो इनका जाप करता है, ये उनके लिए कवच बन जाते हैं|
ऐसा कहते हैं, कृष्नेना संस्तुते देवी शाश्वाद भक्त्या तथाम्बिके, रूपम देहि जयम देहि यशो देहि द्विष जाहि
अर्थात, ओ देवी, जिसे भगवान श्रीकृष्ण असीम भक्ति के साथ पूजते हैं, हम पर कृपा करिएँ, और हमें सौंदर्य, विजय और यश का वरदान प्रदान करिये, और हमारे अंदर की सभी लालसाओं और अज्ञान को मिटाईये|

यह प्रार्थना है| यह कवच अर्गला कीलकं के तीन छंदों में हैं|
अगर आप देखें, तो वे वास्तव में देवी ही थीं, जिन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा करी थी| देवी का जन्म भी यशोदा के घर में, अष्टमी के दिन ही हुआ था, और उन्हें उसी दिन मथुरा लाया गया था| कंस ने उन्हें पकड़ने का, और उन्हें मार देने का प्रयास किया, मगर वे उसके हाथों से छूट गयीं|
यहाँ, कंस अहंकार का प्रतीक है, और भगवान श्रीकृष्ण आनंद का प्रतीक हैं, और देवी दुर्गा आद्यशक्ति का प्रतीक है|
अहंकार चेतना या मौलिक ऊर्जा (अर्थात देवी) को बंदी नहीं बना सकता, और न ही आनंद (अर्थात भगवान श्रीकृष्ण) को पकड़ सकता है|
तब उस दिव्य चेतना ने ये भविष्यवाणी करी, कि अहंकार का विनाश करने वाला आनंद है और वह पहले ही जन्म ले चुका है|
जब जीवन आनंद से भर जाता है, तब अहंकार मिट जाता है| जब कोई व्यक्ति आनंदित होता है, तब उसमें अहंकार नहीं होता| लेकिन जब तक अहंकार रहता है, तब तक व्यक्ति कष्ट भोगता है, और दुखी रहता है| वह किसी न किसी कारणवश दुखी हो जाता है, और किसी न किसी को उसका दोष देता रहता है| तब भी अहंकार चेतना का विनाश नहीं कर सकता, क्योंकि चेतना तो अनंत है|
कुछ भी चेतना को नष्ट नहीं कर सकता, और उसकी शक्ति को कम नहीं कर सकता| यह स्थिर है, और अनंत है| जो भौतिकी जानते हैं, वे इस बात को भली-भांति जानते हैं कि ऊर्जा का न तो कभी निर्माण हो सकता है, और ना ही कभी विनाश हो सकता है| इसी तरह, चेतना का न तो निर्माण हो सकता है और न ही विनाश हो सकता है| इस मौलिक ऊर्जा का निर्माण करने का, या विनाश करने का कोई भी प्रयास निरर्थक ही जाएगा|
देखिये, अगर आप ऊपरी स्तर पर देखें, तो यह केवल एक कहानी ही लगती है| लेकिन अगर आप इसकी गहराई में जायें, तो आप इसके अंदर इतना गहरा ज्ञान छुपा पाएंगे|
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म एक कारागार में हुआ था| जब उनका जन्म हुआ, तब पहरा देने वाले सभी पहरेदार सो गए| ये पहरेदार कौन हैं? ये प्रतीक हैं, हमारी इन्द्रियों के जब हमारी इन्द्रियां जो हमेशा बहिर्मुखी रहतीं हैं, जब वे विश्राम करती हैं, तभी हम अंतर्मुखी हो पाते हैं, और तभी हम अपने अंदर से उभरने वाले उस आनन्द की अनुभूति कर पाते हैं, जिसे हम केवल अपने अंदर ही पा सकते हैं|
इसलिए, इन कहानियों का निरंतर विश्लेषण करिये, इन पर विचार करिये, और आप पाएंगे कि अद्भुत ज्ञान और प्रेम ये दोनों ही आपको उपलब्ध हो जायेंगे|
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि, “तुम खुद अपने आप को अपने पापों से मुक्त नहीं कर सकते| मैं तुम्हें तुम्हारे पापों से मुक्त कर दूंगा|
देखिये, जो कुछ भी कोई व्यक्ति करता है व्रत रखना, पूजा-आराधना की जगहों पर जाना, पश्चाताप करना, - ये सब वह इसीलिये करता है, ताकि वह पापों से मुक्त हो जाए|
तो, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, अहम तवं सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिश्यमी मा सुचः
वे कहते हैं, तुम्हें सिर्फ एक काम करना है| तुम सब कुछ मुझे समर्पण कर दो, और मेरी शरण में आ जाओ
वे कहते हैं, मेरी शरण में आ जाओ ये उनकी पहली शर्त है| और फिर वे कहते हैं, मैं तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा| वह मेरा काम है|
तो, आपका सिर्फ इतना ही काम है, कि आप उनकी शरण में आ जायें, और फिर वे आपको आपके पापों से मुक्त कर देंगे| यह बात कहकर वे सारी बातें कह देते हैं| यह उनकी बात को पूर्ण बना देता है|
मुझे लगता है कि हमें भगवान श्रीकृष्ण के एक वाक्य को सभी लोगों तक उपलब्ध कराना चाहिये| हम ये नहीं करते, बल्कि हम इधर-उधार की सभी बातों को सुनते रहते हैं| खास तौर पर यह बात मुझे सब कुछ समर्पण कर दो, और मेरी शरण में आ जाओ, और मैं तुम्हें तुम्हारे पापों से मुक्त कर दूंगा|
सिर्फ इसी बात से आज हमारे देश में होने वाले धर्म-परिवर्तन रुक सकते हैं|
भगवान श्रीकृष्ण ने यही बात कही है|