एक शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष (पीपल का वृक्ष)!!!

१०
२०१२
अक्टूबर
बैंगलुरु आश्रम, भारत

प्रश्न :  गुरुदेव भगवत गीता के १५ वें अध्याय में एक शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष का विवरण है| इसकी शाखाएं जमीन की ओर और जड़ें आकाश की ओर होती है| क्या आप इसका महत्व समझा सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : यह एक चिन्ह है, जिसका महत्व है कि दिव्यता या चेतना आपका मूल है| वहीं आपकी जड़ें हैं|
भगवत गीता में कहते हैं, “अ
श्वत्थमेनं सुविरूढमूलम-सङग्सस्त्रेण दृढेन छित्त्वा” (भगवत गीता, अध्याय १५, श्लोक ३), यह जान लीजिये कि आप सिर्फ विभिन्न भावनाएं या जीवन के विभिन्न पहेलू नहीं है| इन सभी शाखाओं से दूरी को महसूस करे और फिर वापस आ जायें| अन्यथा हम बाहरी दुनिया मे फँसे रहते हैं और मुख्य जड़ को भूल जाते हैं| उस वृक्ष की कटाई करती रहनी पड़ती है अन्यथा वह फैल जाता है| इसलिये उस सब की सफाई करते हुये यह जान लें कि आपका मूल ऊपर की ओर है|
आदि शंकराचार्य ने एक सुंदर व्याख्यान कहा है, सुरमंदिरतरुमूलअनिवासाह सया भूतलमजीनम वासः सर्वपरिग्रह भोगतयागाह कस्य सुखं करोति विरागः उनका कहना है, मेरा मूल निवास स्वर्ग है, मैं यहाँ सिर्फ कुछ दिनों के लिये मौज करने आया हूं| आज मैं सिर्फ विश्राम करने के लिये आया हूँ, लेकिन यह मेरा मूल निवास नहीं है, वह तो कहीं और है’|
मेरा निवास कहीं और है, मैं यहाँ पर यात्रा पर आया हूँ, यह विचार ही स्वयं आप में दूरी पैदा कर देता है|
यह दुनिया एक पारनयन बराम
दे के जैसी है|
हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशनों पर प्रतीक्षालय होते हैं और उसमे आप क्या करते हैं? आप अपना सामान रख कर भोजन करने लगते हैं| आप शौचालय इत्यादि का उपयोग करते हैं, लेकिन आप अपनी संदूक खोल कर सारी जगह पर अपने कपड़े नहीं फैला देते| आप यह सब पारनयन बरामदे
में नहीं करते| आप अपने सामान पर ताला लगा कर रखते हैं| इसलिये यह दुनिया पारनयन बरामदे के जैसी हैं| इसे अपना निवास या घर समझने की भूल न करें|

प्रश्न : पाँच वर्ष पूर्व मुझे यह पता लगा है कि मेरा बेटा मानसिक रोग से पीड़ित है| वह मेरा इकलौता बेटा है और हर क्षण उसकी पीड़ा देखकर मैं पीड़ित हूँ| इसके पूर्व मैं एक बहुत ही खुश और प्रसन्न महिला थी लेकिन अब मैं प्रतिदिन १५० मि.ग्रा. अवसाद विरोधक दवाईयों पर निर्भर हूँ| अब मैं आपसे यह आश्वासन चाहती हूँ कि मुझे जीर्ण अवसाद या कोई अन्य कभी ठीक न होने वाला रोग न हो जाये|
श्री श्री रविशंकर : हाँ, मैं आपकी पीड़ा को समझ सकता हूँ| कभी कभी थोड़े से अवसाद के लक्षण दिखने पर भी खुराक की भारी मात्रा दी जाती है जिससे स्थिति और बिगड़ जाती है| मैंने ऐसा होते हु देखा है| थोड़े से अवसाद के लक्षण दिखने पर भी खुराक की भारी मात्रा दी जाती है और फिर वह जीर्ण अवसाद मे परिवर्तित हो जाती है और फिर उन्हें लिथियम दिया जाने लगता है| सारी चिकित्सा बिरादरी इस विषय पर भ्रमित है| इसलिये मानसिक स्वास्थ्य बहुत महत्वपूर्ण है| आप सब लोगों ने अपने और मित्रों के बच्चों को आर्ट एक्सल, यस और यस+ कोर्स करवाना चाहिये| किसी तरह उन्हें प्राणायाम और ध्यान करवायें|
क्या आप को पता है ऐसा क्यों होता है? सबसे पहले मन मे थोड़ा तनाव होता है फिर वह बढ़ने लगता है और फिर इतना बढ़ जाता है कि वह मस्तिष्क के सारे संपर्कों को घेर लेता है| इस तरह इसकी शुरुआत होती है| शुरुआत मे ही इस पर ध्यान देना चाहिये| इलाज की तुलना मे रोकथाम बेहतर होता है| और इसके रोकथाम के लिये आपको अपने बच्चों को खुश रहना और उन्हें उनकी नकारात्मक भावनाओं और नकारात्मकता से निपटना सिखाना चाहिये| यह अत्यंत महत्वपूर्ण है|

प्रश्न : गुरुदेव अष्टलक्ष्मी मे सिर्फ एक ही है जिसे विजयलक्ष्मी कहते हैं| आप कहते हैं हमें विजयलक्ष्मी की आवश्यकता होती है| यह ऊर्जा जीतने और सब कुछ में सफल होने के लिये आवश्यक है| क्या आप इसे विस्तृत कर सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : मुझे लगता है मैंने उन अष्टलक्ष्मी पर पहले ही काफी कुछ बोला है| ज्ञानी लोग किसी भी बात को विस्तृत रूप से नहीं कहते, वे सिर्फ सार के तौर पर कुछ संकेत देते हैं| ऐसा कहा जाता है, अल्पक्षरम असंदिग्धाम सार वत विस्वतों मुखं|’
अल्पक्षरम का अर्थ है कुछ शब्द| सूत्र ऐसे ही होते हैं, उनका सार होता है और वे बहु आयामी होते हैं| उनके कई आयाम होते हैं| ज्ञानी लोग सिर्फ कुछ संवाद से ही अपनी बात कहते हैं| सिर्फ कम बुद्धिमान लोग छोटी सी बात पर बड़ा स्पष्टीकरण देते हैं|
कुछ पुस्तकों मे पन्ने दर पन्ने होते हैं| मुझे आप से सिर्फ यह कहना है उन्हें सिर्फ लिखना चाहिये| सिर्फ इतना ही|’ सभी प्राचीन ऋषियों ने यहीं किया| हेयं दुखं अनागतम; सिर्फ इतना ही है, और कुछ नहीं|
तद द्रस्तुह स्वरूपे वस्थनम; सिर्फ इतना ही है, और कुछ नहीं’|

प्रश्न : गुरुदेव प्रेम की अवस्था क्या ज्ञानोदय से उच्च है?
श्री श्री रविशंकर : उच्च और निचली अवस्था काफी पहले ही लुप्त हो जाती है| उसमे ऊँची और निचली सीढ़ी काफी पहले ही गायब हो जाती है| ऐसी कल्पना करे कि आप ब्रह्मांड में अंतरिक्ष मे हैं| क्या वहाँ कुछ ऊँचा या निचला होता है? पूर्व और पश्चिम कहाँ है? वहाँ कुछ नहीं है| वहाँ कुछ ऊँचा या निचला नहीं होता|

प्रश्न : आप से इतना ज्ञान प्राप्त करने के बावजूद, मैं उसे पूरी तरह से अपना नहीं पा रहा हूँ?
श्री श्री रविशंकर : यदि आप उसे अपने जीवन में कुछ हद तक उतार पा रहे हैं तों भी मैं खुश हूँ| उस से भी फायदा होगा| इंच दर इंच आप बढ़ते जायेंगे|

प्रश्न : गुरूजी क्या घर मे पीपल(बोधि) का पेड़ लगाना शुभ होता है?
श्री श्री रविशंकर : हाँ! यह बहुत अच्छा और शुभ होता है| घर से सामने पीपल (बोधि) वृक्ष को लगाने का अर्थ है कि स्वयं भगवान आपके घर के सामने खड़े हैं| यहीं बात भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि वृक्षों मे, मैं अश्वत्थ या पीपल हूँ| पीपल का वृक्ष इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि वह २४ घंटे प्राण वायु (ऑक्सीजन) देता है| इसलिये घर के सामने पीपल का पेड़ होना अच्छा होता है| कई लोग ऐसे भी है जो कहते हैं कि इमली का पेड़ घर के सामने नहीं लगाना चाहिये क्योंकि यह बहुत अच्छा नहीं होता| मुझे नहीं पता उसकी स्पंदन कैसी होती है, लेकिन ऐसा कहा जाता है| यदि आप के घर के सामने इमली का पेड़ है भी तो उसे न काटे सिर्फ उसका वृक्षारोपण कहीं और कर दीजिये|

प्रश्न : गुरुदेव भावनायें कहाँ से उत्पन्न होती हैं? क्या वे मन या शरीर की होती हैं?
श्री श्री रविशंकर : भावनायें मन मे होती हैं लेकिन उसके अनुरूप हार्मोन या संवेदन शरीर मे होते हैं| इसलिये यह दोनों का संयोजन है| यदि आपकी अंतःस्रावी ग्रंथि तेज गति के काम करने लगे तो आपको भय और घबराहट होगी| ऐसी सब भावनायें उत्पन्न होती है| इसलिये विभिन्न हार्मोन या ग्रंथियां विभिन्न भावनायें उत्पन्न करती हैं|

प्रश्न : गुरुदेव साधक के लिये अच्छी संगति का क्या महत्व है? और यदि ऐसी संगति उपलब्ध नहीं हैं तो साधक को क्या करना चाहिये?
श्री श्री रविशंकर :यदि आप को लगता है कि आप दृढ़ और मज़बूत हैं और आप अपनी संगति पर प्रभाव कर सकते हैं तो उनमें बदलाव लायें| उन्हें अपने जैसा बनायें| लेकिन यदि आप दृढ़ और मज़बूत नहीं है तो बुरी संगति से दूर हो जायें| ऐसा करने के लिये आप स्वतंत्र है|