प्राचीन ज्ञान

३०
२०१२
अक्टूबर
बैंगलुरु आश्रम, भारत

प्रश्न : गुरूजी, हम कल से वैदिक ज्ञान के सत्र प्रारंभ कर रहे हैं, उपनयन के साथ| लगभग १०० व्यक्ति यूरोप से यहाँ हैं इसके लिए| क्या आप हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं कि इस वैदिक ज्ञान को कैसे जीवन में उपयोग में लायें?
श्री श्री रविशंकर  : देखिये, वैदिक ज्ञान चिरकाल से है| इसका कोई निश्चित समय नहीं है कि यह ज्ञान कब शुरू हुआ| यह किसी एक व्यक्ति द्वारा शुरू नहीं हुआ| यह वो ज्ञान था जो लोगों को गहरे ध्यान में जाने पर प्राप्त हुआ|
बहुत से ऋषि जब ध्यान मग्न थे तो उन्हें उस गहरी शांति में एक आवाज़ सुनाई दी| उन्होंने जो भी सुना, वे उसे बोलने लगे और किसी को उसे लिखने को कहा| यह फिर मुंह ज़ुबानी लोगों में प्रचारित हो गया| यह ज़ुबानी प्रथा थी|
उसी प्रकार, आयुर्वेद भी अभिलिखित हुआ|
आप जानते हैं आयुर्वेद का जन्म कैसे हुआ?
एक बार मध्य भारत में नैमिशरन्य नाम का जंगल था| उस जंगल में ८४,००० साधक और ऋषि एकत्रित हुए| उन्होंने विचार किया, हमें समाज की सर्वदा भलाई के लिए कुछ करने की आवश्यकता है| यह उनका मकसद था| इस लिए, उन्होंने कहा, हम ध्यान करते हैं, और आयुर्वेद जीवन का विज्ञान - को अभिलिखित करते हैं| पर यदि सब ध्यान में चले जायेंगे तो इस ज्ञान को लिखेगा कौन? तो यह कार्य एक ऋषि को सौंपा गया| उन एक ऋषि ने कहा, मैं जागता रहूँगा और सब कुछ लिख लूँगा| आप सब ध्यान करिये और जो भी ज्ञान आपको गहरे ध्यान में प्राप्त होगा, उसे कहते जाईये|
इस प्रकार, ८४,००० ऋषियों ने ध्यान किया, और एक ऋषि भरद्वाज  ने सब कुछ ताड़ के पत्तों पर लिख डाला| इस प्रकार सम्पूर्ण आयुर्वेद ऋषियों की चेतना से अभिलिखित हुआ| और इसी लिए, यह ज्ञान समय की कसौटी पर अभी तक खरा उतरा है| आयुर्वेद में किसी भी अंग के लिए जो भी जड़ी बूटी बताई गई है, कोई उसका खंडन नहीं कर पाया है|
उसी प्रकार संगीत की विद्या को अभिलिखित किया गया|
संगीत में सात सुर हैं, सा रे ग म प ध नी सा, और यह सात सुर सात पशुओं से जुड़े हैं| जैसे हाथी जो इतना बड़ा है, वो कहता है, नी| जब भी हाथी कोई आवाज़ निकलता है, तो एक नी या निषाद होता है| उसी प्रकार, बुलबुल सरगम का पांचवा स्वर निकलती है| रे का स्वर रिशभ, या भैंस से जुड़ा है| तो जब विभिन्न पशु आवाज़ निकर्लते हैं, तब सा रे ग म प ध नी सा बनता है| पर केवल मनुष्य इन सब सुरों में गा सकते हैं| गन्धर्व वेद में संगीत के बारे में बहुत उत्तम ज्ञान है| संगीतकारों को इसे सीखना चाहिए| यह बहुत रुचिकर है|
वे कहते हैं कि ७२ राग होते हैं और इन ७२ प्रमुख रागों के बहुत से शिशु राग हैं| और इनमें एक राग है, खरहर प्रिय जिसके २००० शिशु राग हैं|
संगीत और राग कैसे बने यह सब गन्धर्व वेद में बताया गया है| इसी प्रकार स्थापत्य वेद (वास्तुशिल्प और दिशा) में बताया गया है कैसे घर बनाएँ, वह किस दिशा में होना चाहिए, और इन सब का क्या असर होता है| पर इन ग्रंथों का बहुत सा ज्ञान विश्व में आज खो चुका है| कभी मध्यकालीन में इन ग्रंथो को जला दिया गया था| यह ज्ञान प्रोत्साहित नहीं किया जाता था| बहुत से ग्रन्थ गुम हो चुके हैं|

प्रश्न : गुरूजी, क्या हम भी यह ज्ञान पा सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर  : हाँ, हम भी यह ज्ञान पा सकते हैं| पर कहा गया है कि कलियुग में, जो कि भारत के ग्रंथों में बताये गए युगों के चक्र की चार अवस्थाओं में से आखरी अवस्था है, इतना ज्ञान नहीं सम्मिलित किया जा सकता| तमो गुण, जो कि निष्क्रियता और नकारात्मकता से जुड़े तीन भाव तत्वों में से एक है, वह कलियुग में अधिक प्रचलित होता है| इसी लिए, लोगों को ध्यान करना चाहिए ताकि नयी वस्तुओं की खोज हो सके|
जब वातावरण में अत्यधिक तामस हो, तो उसे साफ़ करना अनिवार्य है| इसी लिए आप ये सब यज्ञ होते देखते हैं यहाँ पर| क्या आप जानते हैं, भारत में और कहीं भी शायद ही आप यज्ञ इतनी प्रवीणता और सूक्ष्मता से नहीं होते देख पायेंगे?

प्रश्न : गुरूजी, राम नाम सत्य है किसी के मरने के बाद ही बोला जाता है?
श्री श्री रविशंकर  : ताकि लोग कम से कम किसी की मृत्यु पर तो इस बात को याद करें| लोग यह तब जपते हैं जब कोई उनसे ना जुड़ा हुआ या अनजान व्यक्ति मरता है| जब कोई हमारा अपना गुज़रता है तब हमें यह याद नहीं रहता| यह अच्छी बात है कि किसी और की मृत्यु के समय सब याद करते हैं कि भगवान का नाम ही परम सत्य है और बाकी सब छलावा और क्षणभंगुर है| यह प्रथा लोगों को इस बात का आभास दिलाने के लिए शुरू की गई थी| यह केवल उत्तर भारत में होता है, दक्षिण भारत में नहीं| दक्षिण भारत में, लोग किसी की मृत्यु पर मौन रखते हैं|

प्रश्न : गुरुदेव, बहुत बार दिमाग अंतर्ज्ञान की आवाज़ को दबा देता है| अपने अंतर्ज्ञान को कैसे बढ़ाएँ?
श्री श्री रविशंकर : हम तीन प्रकार के ज्ञान प्राप्त करते हैं| पहला ज्ञान कहलाता है, इन्द्रिय जन्य ज्ञान| यह ज्ञान हमारी पांच इन्द्रियों से आता है| जो है आँखों से देखना, कानों से सुनना, नाक से सूंघना, जीभ से चखना, और स्पर्श| यह सबसे मूल और तात्विक ज्ञान है|
इस से ऊपर वह ज्ञान है जो हमें अपनी बुद्धि से प्राप्त होता है इसे बुद्धि जन्य ज्ञान कहते हैं|
और इस से भी उत्तम वह ज्ञान है जो बिना प्रयत्न के अंतर्ज्ञान से आता है, अर्थात, इन्द्रियों की सहायता के बिना| यह ज्ञान हमारी गहराइयों से प्रकट होता है|
इस लिए, ज्ञान के यह तीन स्तर हैं| बुद्धि से प्राप्त ज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान से उच्च है| और उस से भी उच्च है अंतर्ज्ञान|
जैसे जैसे हम बढ़ते और परिपक्व होते हैं, ज्ञान और गूढ़ तथा निर्मल हो जाता है, क्यों कि हमारा दिमाग भी परिपक्व हो जाता है और गूढ़ हो जाता है| हमारा मन तृष्णाओं से, इच्छाओं से मुक्त होता जाता है, और फिर गूढ़ ज्ञान हमें प्राप्त हो जाता है|


प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, आप अपने भक्तों को कैसे पुरस्कृत करते हैं? क्योंकि मुझे नहीं लगता मुझे जो मिला है मैं उसके १० प्रतिशत का भी हकदार हूँ| क्या आपकी तरफ से हिसाब में कोई गलती हो गई है?
श्री श्री रविशंकर : मैं हिसाब नहीं करता| मैं हिसाब क्यों करूं? मैं निश्चिन्त हूँ| आप भी निश्चिन्त हो जाइए| यह अच्छा है जब हमें लगे हमें अपनी लायकता से अधिक मिला है| यह हमें नम्र बनाता है| यह हमारे दिमाग से मांग निकाल देता है, क्योंकि मांग प्रेम को नष्ट कर देती है| जब हमें लगता है हमें अपने हक से ज़्यादा प्राप्त हुआ है, तो हम प्रेम में झूमने लगते हैं| हम आभारी होंगे जीवन में, और इस से हमें और प्राप्त होगा|
जितना अधिक हमें आभार महसूस होगा, उतना अधिक हमें जीवन में प्राप्त होगा| पर यदि हम कहें, ओह, मैंने इतना कुछ किया, पर केवल इतना सा ही पाया, मैं और ज़्यादा का हकदार हूँ, जब हम इस प्रकार सोचने लगते हैं, तब शिकायत करना, बड़बड़ाना, क्रोध, और झल्लाहट होती है|
जीवन में, प्रायः, हमें जो भी मिले, हम में यह भाव होना चाहिए, मुझे मेरी लायकता से अधिक ही मिला है| यह पहली बात है| इसका यह अर्थ नहीं है कि आप को काम नहीं करना चाहिए| आपको काम करते रहना चाहिए|जब आप काम करते हैं, आपको कहना चाहिए, जितना मुझे लगता है, मुझमे उस से अधिक क्षमता है|
पर जब पाने की बात आये, हमें पता होना चाहिए हमें हमारी काबलियत से अधिक मिला है| यह भावना हमें जीवन की ऊँचाइयों तक ले जायेगी, विशेषकर आध्यात्मिकता में| यही नियम होना चाहिए| 

परंतु मानवाधिकारों के सम्बन्ध में मैं नहीं कहूँगा कि यही नियम लागु होगा| वहाँ, यदि आपके अधिकारों का सम्मान नहीं हो रहा तो आपको अपने अधिकारों के लिए मांग करनी होगी| पर जब आपके आध्यात्मिक विकास की बात हो, तो आपको पता होना चाहिए, भगवान ने मुझे मेरी लायकता से अधिक दिया है| यह केवल इस बात को दर्शाता है कि आपको ईश्वर के निर्णय और न्याय पर भरोसा है|

प्रश्न : गुरुदेव, आर्ट ऑफ लिविंग अब इतना लोकप्रिय है, फिर भी हमें बहुत कठिनाई होती है अपने माता पिता को विश्वास दिलाने में| आपने अपने समय में, कैसे अपने माता पिता की सहमति प्राप्त की थी?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, मुझे भी बहुत प्रयत्न करना पड़ा था| आप जानते हैं मैंने दाढ़ी क्यों रखी? नहीं? दिल्ली में, जब मैंने ज्ञान प्रचार शुरू किया, तो बहुत से महाध्यापक आते थे, क्योंकि उन्होंने मेरा नाम सुना था कि मैं ध्यान के बारे में पढाता हूँ| पर जब वे शिक्षा स्थल पर आते, तो पूछते, गुरुदेव कहाँ हैं| मैं कहता, मैं हूँ गुरुदेव| मैं उन्हें १९ साल के नौजवान जैसा प्रतीत होता और वे मुझे गंभीरता से नहीं लेते| जब मैं कुछ बोलता तो वे इधर उधर देखते रहते कि कोई छोटा बालक कुछ बोल रहा है|
इस लिए, वे मेरी बात को ध्यानपूर्वक नहीं सुनते| कुछ लोग कहते, ओह, तुम गुरुदेव हो! और भाग जाते वहाँ से बच कर| इस लिए, मैंने दाढ़ी बढ़ानी शुरू कर दी बड़ा और समझदार दिखने के लिए| जब मैं बंगलौर आया, मेरी माताजी मेरी दाढ़ी देख कर प्रसन्न नहीं थीं| वे भानु से कहतीं, तुम उसे कहो अपनी दाढ़ी हटाने को, और भानु कहतीं, नहीं मैं नहीं कहूँगी, आप कहो| तो उन दोनों की यह बातचीत मुझे दूसरे कमरे से सुनाई देती थी| (हँसी) वह कहतीं, उन्हें कुछ मत कहो, वे बहुत दिनों बाद वापिस आये हैं, उन्हें परेशान न करो| उन्हें जो करना है, करने दो|
उन दोनों को ही पसंद नहीं था मेरा दाढ़ी रखना उस समय| पर मुझे रखनी थी क्योंकि नहीं तो लोग मुझे एक शिक्षक के रूप में नहीं स्वीकारते| वे कहते, ओह, यह तो एक छोटा सा युवक है| वैसे भी मैं शुरू से एक बालक की भाँति ही था| (हँसी) इस लिए, मुझे दाढ़ी रखनी पड़ी और जब एक बार रख ली, तो फिर हमेशा के लिए रख ली|
यह कहानी है दाढ़ी की|

प्रश्न : गुरुदेव, अपनी दसों इन्द्रियों पर विजय कैसे पाएँ? (पांच कर्मेन्द्रियाँ, जैसे मुंह, हाथ, पैर, मलोत्सर्जन के अंग, जननांग; और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, जैसे, आँखें, कान, नाक, जिह्वा और चमड़ी?
श्री श्री रविशंकर : पहले तो अपने आप को व्यस्त रखिये| यदि आप खाली बैठेंगे तो आपकी इन्द्रियाँ आप पर हावी हो जाएँगी| स्वयं को व्यस्त रखिये, यह अति आवश्यक है| जीवन में एक बड़ा लक्ष्य रखिये, तब आपको यह समस्या नहीं होगी|
दूसरा, आप में धैर्य होना चाहिए और अपने खान पान पर नियंत्रण होना चाहिए|

प्रश्न : गुरुदेव, यदि कर्मों की छाप एक बार मन पर बन जाये, तो उसे मिटाने के लिए क्या इस ज्ञान का अनुभव करना पर्याप्त है कि मैं यह मन नहीं हूँ, और जो मैं हूँ, उसे कुछ छू नहीं सकता और वह कर्मों से प्रभावित नहीं हो सकता| या, यह जान कर, प्रायश्चित करके खुद को सही करना आवश्यक है?
श्री श्री रविशंकर : नहीं, इतना जान पाना ही पर्याप्त है| आपको क्षमा मांगनी चाहिए और स्वयं को सही करना चाहिए पर यह जानना भी बहुत महत्वपूर्ण है|

प्रश्न : भगवद गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, सब आदित्यों में से मैं विष्णु हूँ, वेदों में सामवेद हूँ, भगवानों में मैं इन्द्र हूँ, और रूद्रों में मैं शंकर हूँ| वे क्यों एक को दूसरे से अधिक प्राथमिकता देते हैं?
श्री श्री रविशंकर : उन्होंने हमेशा कहा है, मैं सर्वोत्तम हूँ| इस लिए, वे सबसे उत्तम रूप को चुनते हैं| वेदों में सामवेद को सर्वोत्तम माना गया है क्योंकि यह सुरीला है| यह सब संगीतों, समानताओं, प्रेम और भक्ति का उच्चतम स्वरुप है| इस लिए, कृष्ण को एक से दूसरा अधिक पसंद है|
यह सब उनकी पसंद हैं| वे यह नहीं कहते कि बाकी सब कम महत्वपूर्ण हैं या अच्छे नहीं हैं, नहीं, कतई नहीं| वे बस कहते हैं, मैं यह हूँ|
यह वैसे है जैसे आप किसी भोजनालय में जाते हैं और कुछ खाने की वस्तुएं उठा कर कहते हैं, मुझे यह पसंद है| इसका यह अर्थ नहीं है कि आपको बाकी सब कुछ पसंद नहीं है|