पुनर्जन्म

२७
२०१२
दिसम्बर
बर्लिन , जर्मनी
प्रश्न : कृपया बतायें कि हमें दोबारा जन्म लेने से क्यों बचना चाहिये?

श्री श्री रविशंकर : उठें और देखें , जीवन में कितना दु:ख भरा है , और आप दु:ख को कभी पसंद नहीं करते । आप दु:ख नहीं चाहते ।

हम जो नहीं चाहते , उसे दु:ख कहते हैं और जीवन में यही है । पति और पत्नी में ,माता और पिता में , माँ और बेटी , बेटी और बेटे ; मित्रों और शत्रुओं , सबके साथ दु:ख जुड़ा है । यहाँ तक कि आपका शरीर आपके लिये और भी अधिक दु:ख लाता है । आप कुछ भी करते हैं , उसके साथ कुछ न कुछ दु:ख जुड़ा रहता है ।

जब आप इस संसार में जन्म लेते हैं तो आप दूसरों पर निर्भर होते हैं । जब आप बच्चे होते हो तो आप अपने आप उठ भी नहीं पाते । किसी को आपको उठाना पड़ता है और किसी को आपको साफ करना पड़ता है ।

पैदा होने के समय से आप निर्भर हैं और वृद्धावस्था में भी आप निर्भर हो जाते हैं , पर धन आपको झूठी धारणा देता है कि आप आत्मनिर्भर हैं । इसीलिये इसे मायाकहा जाता है । माया का अर्थ है कि यह एक आभास पैदा करती है ।
यदि आप किसी को कुछ डॉलर देते हैं और वो आकर आपके लिये काम करता है , तो यह आपको यह अनुभूति कराता है कि आप आत्मनिर्भर हो ।

जीवन में निर्भरता है । जहाँ भी निर्भरता होती है वहाँ दु:ख होता ही है । जो दु:ख भरा होता है , वो आनंददायी नहीं होता और आप उसे लेना नहीं चाहते । इसीलिये लोग कहते हैं , “मुझे फिर से और जन्म नहीं चाहिये । बहुत हो चुका
जरा कल्पना कीजिये , आपको फिर से स्कूल जाना पड़े , मार खानी पड़े और फिर कॉलेज जाना पड़े और फिर से किशोरावस्था की परेशानियों से गुज़रना पड़े ।

उन सभी किशोर बच्चों को देखिये , मुँह सुजाये हुये ; इतने गुस्से में । वे अपने माता-पिता पर गुस्सा हैं और वे नहीं जानते कि क्या करें । देखिये ,केवल आपके शत्रु ही आपको परेशान नहीं करते , आपके मित्र भी आपको परेशान करते हैं ।
सब कुछ परेशान करने वाला है ।

आपका दिमाग उतना ही शत्रुओं से भरा पड़ा है , जितना कि मित्रों से । इसलिये वे सभी आपको परेशान करते हैं । सब परेशानियों को छोड़िये , आपका अपना दिमाग ही सबसे बड़ी परेशानी है । इस संसार में कुछ भी आपको उतना अधिक परेशान नहीं कर सकता , जितना कि आपका अपना दिमाग । वास्तव में , लगता यह है कि दूसरे आपको परेशान कर रहे हैं , जबकि दूसरे नहीं , यह आपका अपना दिमाग होता है , जो आपको परेशान करता है ।

आप अपने मन से ही छुटकारा चाहते हैं , इसलिये आप कहते हैं कि मुझे एक और जन्म नहीं चाहिये । परंतु यदि एक बार आप यह जान लेते हैं कि यह , और कोई नहीं , आपका अपना मन है , जोकि आपको परेशान कर रहा है , तो यही ज्ञान है । और जब ज्ञान का उदय होता है तो आप कहते हैं , “मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता चाहे मुझे दस बार जन्म लेना पड़े , या सौ बार , या हज़ार बार , मैं लूँगा ।

तब आपको समझ आता है कि जीवन आनंद है , परमांनद । यही ज्ञान है !
कल मैंने कहा था कि हमारा मन ही हमारा सबसे अच्छा मित्र है और हमारा मन ही हमारा सबसे खराब शत्रु है । यह एक मित्र में शत्रु को और एक शत्रु को मित्र में देखता है । आपका मन अपना ही स्वर्ग और अपना ही नर्क बना या बिगाड़ सकता है । इस तरह , वास्तव में तो हम मन से छुटकारा चाहते हैं, परंतु कहते यह हैं कि , “मैं दोबारा जन्म लेना नहीं चाहता ।

प्रश्न : बड़े से अहम् वाले लोगों से कैसे निपटा जाये , विशेष रूप से तब जबकि उनका व्यवहार जीवन को व दूसरों को बुरे तरीके से प्रभावित कर रहा होता है ?

श्री श्री रविशंकर : उनके अहम् को बड़ा होने दो , आप क्यों परेशान होते हो ?
आप उनसे भी बड़े अहम् को पाल रहे हैं , बात यहीं खत्म हो जाती है ।
मैं कहता हूँ कि आप पायेंगे कि आपका अहम् उनसे भी बड़ा है ।
दूसरों में अहम् होने दो न , क्या अंतर पड़ता है ? आपने हर एक के अहम् को खत्म करने का , या फिर उसे कम करने का ठेका क्यों ले रखा है ?

यदि किसी का अहम् बड़ा है तो प्रकृति उन्हें सिखायेगी । एक न एक दिन , वे दु:खी होंगे । उन पर छोड़ दो । उन्हें मज़ा लेने दो ।
आप दूसरों के अहम् को देख कर इतने परेशान क्यों होते हो ? मेरी समझ में नहीं आता ।
आप से जो होता है , जितना होता है , करते जायें और आगे बढ़ते जायें । बस ।

हमें जीवन में आगे बढ़ते जाना चाहिये ।

यदि कोई आपसे बुरा करता है , तो आप उठकर उन पर चिल्ला सकते हैं ,“आपने कल या फिर परसों मेरे साथ ऐसा क्यों किया ; या फिर दस साल पहले ऐसा क्यों किया ?” पर मैं कहता हूँ कि आप कल या फिर एक माह पहले हुई गलती के बारे में बात करके निश्चित रूप से वर्तमान क्षण को भी खराब कर रहे हैं । आप इस क्षण की सुंदरता को भी बिगाड़ रहे हैं ।
मैं चाहूँगा कि आप अभी निर्णय लें कि , “पूर्व में क्या हुआ इससे मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता , अभी इस समय मैं इस क्षण को खराब नहीं होने दूँगा ।बस ।

यह संसार सागर के समान है , ऐसी बातें होती रहती हैं । होती हैं और बीत जाती हैं । बिना किसी खास वजह के मित्र शत्रु बन जाते हैं और शत्रु मित्र ।

आप में से कितने लोगों का अनुभव ऐसा रहा है कि चाहे आपने कुछ लोगों के साथ हमेशा अच्छा ही किया , फिर भी बिना कारण ही वे आपके शत्रु बन गये । (बहुत से लोगों ने हाथ उठाया )

आपको हैरानी होती है , “हे भगवान , मैंने तो इस आदमी के साथ हमेशा अच्छा ही किया , यह मुझ पर आरोप क्यों लगा रहा है? यह व्यक्ति मेरा शत्रु क्यों बन गया है?”
और ऐसे भी लोग हैं जिनके लिये आपने कुछ भी नहीं किया और फिर भी उन्होंने आपकी बहुत सहायता की । आप में से कितनों को ऐसा अनुभव हुआ है ? ( बहुत से लोगों ने हाथ उठाया )

देखिये कोई आपका मित्र बनता है या शत्रु , ये सब कर्मों के अद्भुत नियमों के अनुसार होता है । इसलिये उन सब को एक तरफ रखिये और शांत रहिये । मैंने तो इसी नीति को अपनाया है । आप एक व्यक्ति से बहुत अच्छा करते हैं और फिर भी वह व्यक्ति आपसे गुस्सा रहता है और आप को दोष देता है ,आप क्या करते हैं ?

इसलिये , उसे चबाते न रहिये और बीते हुए को ले कर अपने आज को खराब मत करिये । अच्छा विचार है न ? आइये , इस क्षण का आनंद लें ।

पहले मैं लोगों की सुनता रहता था , उनकी सब कहानियाँ और एकदूसरे पर दोषारोपण । अचानक मुझे अहसास हुआ , “ नहीं , मैं किसी की भी शिकायतों को और नहीं सुनूँगा । मैं इस क्षण की ऊर्जा को खराब करना नहीं चाहता ।

अपने हालातों से निपटो , यही आपका कर्म है । ऐसा ही पहले के लोग कहा करते थे । वे कभी भी परामर्शदाता की तरह बैठ कर आपकी कहानियाँ नहीं सुनते थे । वे कहते थे , “आओ , इसी क्षण उठो ; अभी ( अपनी उंगलियों को चटखाते हुये )” , और यह मन में , ऊर्जा में , और समय में एक बड़ा परिवर्तन ले आता था । परंतु आप इसे एकदम से शुरु न कर दें , तब तो आपको सर्वाधिक असंवेदनशील और रूखा व्यक्ति समझा जायेगा । समझे न ऐसा धीरे धीरे करें । आपको लोगों को सुनना होगा , जोकि मैंने बहुत सालों तक किया है । परंतु एक समय आयेगा , विशेष रूप से लोगों के साथ ,जबकि आप कहेंगे , “ठीक है , अब और नहीं ।

कभी कभी ऐसा होता है कि घर में बूढ़े लोग कहते ही चले जाते हैं । उन्हें शिकायत करने में मज़ा आता है । आपमें से कितने लोगों को ऐसा अनुभव हुआ है ? ( बहुत से लोग हाथ उठाते हैं )

देखा! उन्हें शिकायत करने में मज़ा आता है ; और जब कोई सुनता है , तो वे और भी अधिक शिकायत करते हैं । उन क्षणों में आपको संगीत लगा लेना चाहिये और कहना चाहिये , “शिकायत छोड़िये ।आइये , नाचें ।

प्रश्न : गुरुदेव , आपने कहा था कि २०१२ आनंदका वर्ष होने वाला है । फिर यह इतना कठिन वर्ष क्यों रहा ?

श्री श्री रविशंकर : आनंद का वर्ष अभी खत्म नहीं हुआ ,यह मार्च के अंत तक समाप्त होगा । अभी तीन माह बाकि हैं ।
पता है , यह अच्छा है कि आपके भीतर मंथन होता है , तभी आप जागते हैं ।
ऐसा केवल बाहरी जगत में ही नहीं होता , आध्यात्मिक जगत में भी ऐसा ही होता है । लोग यहां अध्यात्म के लिये आते हैं और बहुत सी दूसरी बातों में फँस जाते हैं ।

उस दिन एक व्यक्ति मेरे पास आया , और मैंने कहा , “तुम मेरे पास क्यों आये थे ? तुम मेरे पास ज्ञान के लिये आये थे और तुमने ज्ञान को छोड़ कर और सब बातों के बारे में सोचना शुरु कर दिया है ।
उस व्यक्ति ने कहा , “इस आदमी ने मुझे ऐसा बोला ।

अरे ! यदि संसार बुरा है , तो यह भी एक अच्छे कारण से है ; ताकि आप स्वयं को ठीक कर सकें । जब आपको अपनी कमियाँ दिखाई नहीं देती , आप दूसरे हर किसी में कमियों को देखते हो , और आप सोचते हैं कि , ‘दूसरा हर कोई बुरा है ,केवल मैं ही अच्छा हूँ

मैं कहता हूँ , जो लोग ऐसा सोचते हैं वे बहुत ही गलत हैं । वे साधक नहीं हैं । साधक होने से भाव है कि हम स्वयं को परखें और देखें , “मुझे अपने में क्या ठीक करना चाहिये , मुझे उसे ठीक करने दो ।

आप यह शिकायत नहीं कर सकते कि जर्मनी में सर्दियों में बहुत ठंड होती है । वो तो होगी ही । भीतर रहना ही ठीक रहेगा । इसलिये , ज्ञान को थामें । यही एकमात्र सच है और एकमात्र वास्तविकता । और इसीलिये , यह सब ज्ञान , ध्यान और साधना हैं । यह आपको ऐसी आंतरिक शक्ति देता है कि आप किसी भी परिस्थिति से मुस्कुराते हुये निकल जाते हैं । हम सब इसी की आकांक्षा तो करते हैं न ?ऐसी आंतरिक शक्ति , कि कुछ भी हो जाये , कोई आपकी मुस्कान नहीं छीन सकता ।
यही सबसे अधिक जरूरी है ।

प्रश्न : हम आंतरिक शक्ति को कैसे पा सकते हैं और इसे कैसे बनाये रख सकते हैं ?

श्री श्री रविशंकर : इस ज्ञान को पाकर ।ऐसा नहीं कि साल में एक बार आप आयें , कुछ ज्ञान की बातें सुनें और चले जायें । इसे अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनायें , ताकि यह(आंतरिक शक्ति) बनी रहे ।
नम्रता भी महत्त्वपूर्ण है । कभी कभी लोग ज्ञान के प्रति बिल्कुल रुचि नहीं दिखाते । वे सोचते हैं , “मुझे सब पता है ।
ऐसा अंहकार नहीं होना चाहिये , “मुझे सब ज्ञान है , अब जानने को क्या रहा ।

ज्ञान का निरंतर दोहराव ; उन्हीं सब तथ्यों का , जोकि आपको पता हैं और उन्हें फिर से अनुभव करते रहना महत्त्वपूर्ण है । यह बहुत मुश्किल या कठिन काम नहीं है , और चाहे आप ज्ञान को एक पल के लिये भूल भी जायें , यह वापिस आ जाता है । यह जानते हुये कि यह वापिस आ जाता है , आप वास्तव में इसको खोते नहीं हो , यह वहीं होता है ।

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव , क्या आप बता सकते हैं कि उस सुविधाजनक स्थिति (comfort zone) , जिसमें कि हम कुशल व सुरक्षित महसूस करते हैं , से बाहर आकर वो सब करना जो कि हमें अच्छा नहीं लगता , या जो करने में हमें सुविधा महसूस नहीं होती , कैसे अच्छा है ?

श्री श्री रविशंकर : समय समय पर अपनी सुविधाजनक स्थिति से बाहर आना आपकी योग्यता और बल को बढ़ाता है ; आप अधिक मज़बूत होते हैं ।

आप अपनी सुविधाजनक स्थिति में बुरी तरह फँसे हुये हैं । यही आपके डर ,व्याकुलता और बन्धन का कारण है ।
कभी जब आप उठते हैं और कहते हैं कि ,”मैं इससे बाहर आने वाला हूँ” , तो यह आपकी शक्ति को वापिस लाता है ।

प्रश्न : जिन लोगों से हम प्रेम करते हैं वे आत्महत्या क्यों कर लेते हैं? क्या उन्हें हमारे प्रेम की अनुभूति नहीं होती ?

श्री श्री रविशंकर : ऐसा इसलिये है क्योंकि उन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई होती और वे नहीं जानते कि जीवित रहना क्या है और मरना क्या है?

उन्हें अपनी प्राण-शक्ति के विषय में , अथवा अपने जीवन के विषय में कुछ पता नहीं होता । वे अपने आराम से इतने आसक्त होते हैं कि वे आत्महत्या कर लेते हैं । वे लोग जोकि अत्यधिक आराम चाहते हैं , आत्महत्या करते हैं । उनमें सहनशक्ति नहीं होती ; वे जरा सी असुविधा भी सहन नही कर पाते । 

यहीं पर आपको अधिक प्राण-शक्ति व अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।
जितना आप किसी से आत्महत्या न करने के लिये कहेंगे , उतना ही वे बोलेगा , “नहीं , मैं आत्महत्या करना चाहता हूँ ।” ‘कभी कभी मैं उन से कहता हूँ , “ठीक है , आत्महत्या कर लो , पर माउंट एवरेस्ट पर चढ़ कर वहाँ से कूदना । घर पर फाँसी न लगा लेना । कुछ साहसिक करने निकलना और फिर यदि आप मर जाते हो , तो मर जाओ । शुभकामना ।

आत्महत्या करना मूर्खता है । उन्हें इस सुंदर ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है और वे अपने जीवन का मूल्य नहीं जानते । इसलिये हर एक को उसके श्वासों के बारे में सिखाना हमारे लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है ।

जब प्राण-शक्ति बहुत कम होती है तभी आत्महत्या के विचार आते हैं । जब प्राण-शक्ति उच्च होती है तो यह विचार कभी नहीं आता । यदि प्राण-शक्ति उच्च होगी तो कोई अपराध नहीं होगा । आप किसी के साथ या फिर अपने साथ हिंसक नहीं होते यदि आपकी प्राण-शक्ति उच्च होती है । इसीलिये लोगों को सुदर्शन क्रिया , प्राणायाम , ध्यान , ये सब सिखाने की आवश्यकता है ।
जिन लोगों में ऐसी प्रवृत्ति होती है उन्हें स्वयं को दूसरों की सेवा में लगाना चाहिये ।

प्राचीन भारत में , किसी को भी तब तक ज्ञान नहीं दिया जाता था जब तक कि वे कोई सेवा कर के थक नहीं जाता था । १० से १२ सालों तक लोग आश्रम में रहते थे और इतनी अधिक सेवा करते थे । तभी उन्हें ज्ञान दिया जाता था ।

जब तन इतनी सेवा , इतना काम करके भी स्वस्थ रहता है , तो मन भी स्वस्थ व विनम्र रहता है । यह मार्शल आर्ट में दिये जाने वाले प्रशिक्षण के समान है । आपने मार्शल आर्ट के प्रशिक्षण को देखा है ? मन व शरीर को समन्वित किया जाता है । सेना में भी आपको इसी प्रकार से प्रशिक्षित किया जाता है , ताकि सब ओर आपकी भावनायें ही न हों , और आप सदाअपनेही बारे में न सोचते रहें ।

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव , जब भी हमें कोई परेशानी आती है या हमें कोई निर्णय लेना होता है और हमें अपने भीतर की आवाज़ से उत्तर मिल जाता है , तो हम कैसे जानेंगे कि कौन बोल रहा है? यह हमारा मन , अंतर्ज्ञान या फिर ईश्वर स्वयं होते हैं ?

श्री श्री रविशंकर : सब एक ही हैं , इस बारे में चिंता न करें । इसका अधिक विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है । निश्चिंत रहिये , बस । जब हम निश्चिंत होते हैं , तो सही उत्तर प्राप्त होते हैं ।
हम अंतर्ज्ञान जबरदस्ती नहीं पा सकते । यह प्राकृतिक प्रक्रिया है ।

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव , जब क्रोध जैसी तीव्र भावनायें उठती हैं , तो उन्हें नियंत्रित करना कठिन होता है और मैं ऐसी बातें कर देता हूँ , जिनके लिये कि बाद में पछताता हूँ । इस से कैसे निपटूँ?

श्री श्री रविशंकर : अरे अब , यह पहले से बेहतर है न ? पहले भी आप क्रोधित हो जाते थे , पर अब यह बेहतर है । योगाभ्यास आदि करते रहिये । यह आपके क्रोध को कम करेगा । यदि यह आपके क्रोध को कम नहीं कर पाता तो केवल ईश्वर ही आपकी सहायता कर सकते हैं । शुभकामनाएँ !

यदि अब भी आप क्रोधित हैं , तो होते रहिये ! इससे , आपकी कीमत पर दूसरों का मनोरंजन है । संसार में इसकी भी जरूरत है । थोड़ा सा मसाला यहाँ-वहाँ , थोड़ा सा अचार या थोड़ी सी मिर्ची । जब तक आँखों में न जाये , मिर्ची भी बढ़िया है ।