पीड़ित व्यक्ति न बनने का इरादा कर ले!

२०१३
अप्रैल
नॉर्थ केरोलिना, अमेरीका

यह सब केवल अनेक भूमिकाएं जो हम निभाते हैं उन पर निर्भर करता है | आप सब को बस अपनी भूमिकाएं बदलती रहनी हैं और कहते रहना है अब नयी भूमिका!” और अपनी भूमिका निभाने का जो अवसर मिला है उसके लिए बस कृतज्ञ होते रहना है, उसी से सब कुछ हो रहा है |

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, आप ने अनेकों बार कहा है छोड़ दो, भूल जाओ पर अगर कोई व्यक्ति वही गलती बार बार, दिन प्रति दिन करता रहे तो क्या करना चाहिए? मैं एक बार जाने दे सकता हूँ, दोबारा जाने दे सकता हूँ पर तीसरी बार नहीं| तो क्या मुझे उनको कुछ कहना चाहिए, सबक सिखाना चाहिए या कुछ और करना चाहिए? कृपया मेरी सहायता करें|
श्री श्री रविशंकर : हाँ, आप को उनको बताना चाहिए, सिखाना चाहिए लेकिन उनको अपने दिमाग से बाहर रखना चाहिए | मुक्त रहने का मतलब चुप रहना नहीं है |
अगर कोई गलती कर रहा है और आप उसको कहोगे “ऐसा मत करो, क्योंकि इससे मुझे कष्ट होता है”, तब वे कभी भी उसको करना बंद नहीं करेंगे| उसकी जगह आप उनसे कहें कि “आप का यह गलती करना आप के लिए कष्टदेह हो सकता है” तब वे नहीं करेंगे| एक शिक्षक और पीड़ित व्यक्ति में यही अंतर होता है |
एक पीड़ित व्यक्ति कहता है “मैं पीड़ित हूँ, तुम मुझे पीड़ा दे रहे हो इसलिए तुम यह गलत काम मत करो”| एक पीड़ित कभी भी एक दोषी को नहीं सुधार सकता | लेकिन अगर आप एक शिक्षक हैं तो सुधार ला सकते हैं|

एक शिक्षक क्या करता है ? वह अगले व्यक्ति को कहता है, “मेरे प्रिय, जो तुम कर रहे हो वो तुमको कष्ट देगा, ऐसा मत करो| जो प्यार और सहानभूति मेरे अन्दर तुम्हारे लिए है मैं उसी के कारण ऐसा तुमसे कह रहा हूँ, इसलिए कृपया ऐसा मत करो क्योंकि इससे तुमको अधिक कष्ट होगा”|

तब उस व्यक्ति के अन्दर कुछ हलचल होगी और तब वह आपकी बात सुनेगा| तब वह अपना रास्ता बदल लेगा| याद रखो “एक पीड़ित व्यक्ति कभी किसी दोषी में सुधर नहीं ला सकता और अगर आप किसी में कोई सुधार लाना चाहते हैं और उनको कुछ सिखाना चाहते हैं तो आपके अन्दर एक शिक्षक जैसी उदारता होनी चाहिए| आपके अन्दर सहानभूति, एक खुला दृष्टिकोण और धैर्य होना चाहिए”|
तीन चीज़ें अति आवश्यक हैं, उदारता, धैर्य और कौशल्| तभी आप उनकी गलतियों को आसानी से आत्मसात कर पाओगे|
देखो, इस ग्रह पर गलतियाँ तो होती ही रहती हैं| आप गलतियों को होने से नहीं रोक सकते| वे होती रहेंगी और वे युगों युगों से होती रही हैं| जब आप नहीं चाहते कि कोई व्यक्ति विशेष गलती करे क्योंकि आप उसको अपना एक हिस्सा मानते हो, या तुम देखते हो की वह कष्ट में है और आपको लगता है कि उनको उस पीड़ा से बाहर आना चाहिए क्योंकि वह उनके लिए ठीक नहीं है, तब तुमको उनका मार्गदर्शन करना चाहिए|
आप ऐसा नहीं कह सकते कि दुनिया में कोई अपवहन क्षेत्र नहीं होना चाहिए या कोई गन्दा दलदल नहीं होना चाहिए| दलदल दुनिया में होते हैं लेकिन आप नहीं चाहते कि कोई आपका अपना या कोई मित्र उसमे गिरे| आपको बस उसे उससे दूर रहने या फिर बाहर निकलने के लिए मार्गदर्शन देना चाहिए | ऐसा करने के लिए दया और सहानभूति की आवश्यकता होती है|
आप उनको तभी बाहर निकाल सकते हैं जब आप उनका हाथ पकड़ सकें| आप तभी लोगों का रूपांतरण कर सकते हैं| किसी की गलती को बताने से कुछ नहीं होगा | आपके अन्दर उदारता, धैर्य और कौशल होना आवश्यक है| हो सकता है आपके अन्दर कौशल और उदारता हो लेकिन आपके अन्दर धैर्य भी होना आवश्यक है|
हो सकता है आपके अन्दर धैर्य हो और जिसके कारण जब कोई गलती करे तो आप अपने आप को शांत रख सकें, और हो सकता है आपके अन्दर उसको सुधारने का कौशल भी हो लेकिन अगर आप में उनको स्वीकार करने और उनके उत्थान की उदारता नहीं है, तब भी कुछ नहीं हो सकता है| ऐसा मेरा अवलोकन रहा है|
अतः, आप एक दोषी को तीन चीज़ों की सहायता से परिवर्तित कर सकते हैं - उदारता, धैर्य और कौशल|
यह बात आप सबके लिए लाभदायक है क्योंकि आप में से कुछ आर्ट ऑफ लिविंग के शिक्षक हैं और कुछ विभिन्न स्थानों पर आयोजक हैं|
मैं आप लोगों को एक घटना बताना चाहता हूँ |
एक बार मुंबई में एक कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा था| मुंबई में हमारे कुछ वरिष्ठ शिक्षक हैं और एक एपैक्स बॉडी भी है जो यह कार्यक्रम आयोजित कर रहे थे और सारा प्रबंध देख रहे थे| ये वरिष्ठ शिक्षक कई सालों से इस तरह के कार्यक्रम आयोजित करते रहे थे और नए लोगों को उनके आयोजन का तरीका पसंद नहीं आ रहा था| वरिष्ठ शिक्षक हमेशा से इस तरह के आयोजनों के प्रभारी रहे थे और नए सदस्य इसमे बदलाव करना चाहते थे ताकि वे कुछ योगदान कर सकें और काम का उत्तरदायित्व ले सकें| तो नए सदस्यों ने नए लोगों को सशक्त बनाना प्रारंभ कर दिया परन्तु उन्होंने पाया कि वरिष्ठ लोग इन नए लोगों को अपना काम ठीक से नहीं करने दे रहे हैं| तो सभी लोगों ने एक गोष्ठी की जिसमे सभी वरिष्ठ शिक्षक एकजुट हो गए और नए सदस्यों को फटकार लगायी|
इसके बाद सभी नए आयोजकों ने त्यागपत्र दे दिया| यह सब आयोजन के २ हफ्ते पहले हुआ| मैंने वरिष्ठ शिक्षकों को फ़ोन किया और पुछा “क्या उन लोगों ने तुम्हारी फटकार के बाद तुम्हारी सलाह मान ली”?
उन्होंने कहा “नहीं”|
तब मैंने कहा “तुम जानते हो कि वो तुम्हारी सलाह नहीं मानेंगे| तो तुमने उनको सलाह क्यों दी? और वे तुम्हारी सलाह डांटने के बाद तो बिलकुल नहीं मानेगे| इसमे कोई संशय नहीं है कि तुमने जो कुछ कहा अपने ह्रदय की बात कही लेकिन ऐसा करने का क्या प्रभाव पड़ा? ऐसा करने से स्थिति में में कोई रचनात्मक सुधर आया या स्थिति और बिगड़ गयी”?
उन्होंने कहा “स्थिति और बिगड़ गयी”|
मैं यही तुम सब को बताना चाहता हूँ|
उदाहराणतः, आप किसी कंपनी में काम करते हो और तुम्हारे पास एक बहुत बढ़िया योजना है| अगर आप अपने प्रबंधक के पास जाते हैं और उसको बताते हैं कि वह जो कुछ भी कर रहा है वह गलत है और उसको फटकार लगाते हैं तो आपको क्या लगता है कि वह आपकी योजना के बारे में सुनेगा? नहीं, वह नहीं सुनेगा| तब ऐसा काम क्यों करना है जो लाभकारी ना हो? इसमे आपका बहुत सारा समय और उर्जा लगती है|

यह सच है कि अपनी भावनाओं को व्यक्त करके आप खाली हो जाते हो पर यह किसी भी तरह से सहायक नहीं होता| तो मैंने नए सदस्यों को बताया कि वरिष्ठ लोग उनकी बात नहीं सुनेंगे क्योंकि वे सभी लोग समाज में प्रमाणित लोग हैं| वे सभी बड़े व्यापारी हैं और वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं| या वे ऐसा सोचते हैं कि वे जानते हैं वे क्या कर रहे हैं| और वे किसी और की बात नहीं सुनने वाले चाहे वे गलत ही क्यों ना हों | वो किसी और या किसी कम आयु वालों की राय नहीं लेंगे| तुमको पता है, समाज में कई तरह के स्तर और बाधाएं होती हैं| जैसे आयु की बाधा, स्थान की बाधा, और कुछ नहीं तो अहंकार की बाधा|

अगले दिन वे सभी लोग एक हुए और फिर से एक गोष्ठी की| क्योंकि सभी चाहते थे कि मैं मुंबई आऊं और मैं २ साल के बाद वहां जा रहा था जिसके कारण लोगों में बहुत ललक थी, अंत में सब कुछ ठीक हो गया|

मैं कहना चाह रहा हूँ कि तीनो चीज़ें - उदारता, धैर्य और कौशल होना आवश्यक है| इस घटना से अचानक सभी वरिष्ठ शिक्षकों के मन में जाग्रति हुई| वे भी इस बात से सहमत थे कि यही सही तरीका है और जो गलतियाँ हो गयी हैं बार बार उनकी तरफ उंगली उठाने का कोई अर्थ नहीं है| लोग आपकी बात नहीं सुनेंगे बस केवल अपनी गलतियों की सफाई देंगे|
तो ऐसी परिस्थिति में इस तरह से व्यवहार करने का क्या लाभ है? किसी दूसरे को यह कहने के स्थान पर कि उसने सही या गलत किया है आपको अपनी बात एक सकारात्मक सुझाव की तरह रखनी चाहिए| या उनसे ऐसा कहो “संभवतः यह तरीका अधिक अच्छा होता”|
एक बार एक ज्योतिषी एक राजा के पास गया| राजा ने उसे बहुत आदर दिया, उसे बिठाया और उसे सम्मान और उपहार दिया| राजा ने उसे अपनी हथेली और अपनी जन्म कुंडली दिखाई| ज्योतिषी ने सब कुछ की जाँच की और राजा से कहा “हे राजन! तुम अपने सारे परिवार को खो दोगो| सब लोग तुम्हारे पहले मृत्यु को प्राप्त कर लेंगे | तुम्हारी मृत्यु सबसे अंत में होगी”|
राजा यह सुनकर बहुत क्रोधित हो गया और उसने ज्योतिषी को कारागार में डाल दिया| इस समाचार ने सारे ज्योतिषी समाज को हिलाकर रख दिया| उन्होंने सोचा “हम तो राजा को सच नहीं बता सकते, अगर हम ऐसा करते हैं तो वे हमें कारागार में डाल देगा, अब हम क्या करें”?
कोई भी व्यक्ति नकारात्मक भविष्यवाणी पसंद नहीं करता| वह निःसंदेह कोई अच्छी और सकारात्मक बात सुनना चाहता है| और ऐसा राजा के लिए भी सच था|
राजा ने दूसरे ज्योतिषी को अपने सामने आने के लिए कहा| बहुत से ज्योतिषी राजा के इस निवेदन से पलायन कर गए पर एक वरिष्ठ ज्योतिषी राजा से मिलाने को तैयार हो गया| तो वह राजा के समक्ष प्रस्तुत हुआ, राजा ने उसका भी उसी भाव और उपहारों से स्वागत किया| राजा ने उसको अपनी हथेली दिखाई| ज्योतिषी बोला “हे राजन! आपको तो महान भविष्य का वरदान है! आपका राशिफल तो बहुत अच्छा है| समस्त इतिहास में किसी को भी इस तरह का दीर्घायु होने का सौभाग्य नहीं है जैसा आपका है| सच तो यह है कि आपके राजवंश में कोई भी इतना दीर्घायु नहीं हुआ है जितने आप होंगे”|
ज्योतिषी ने यह नहीं कहा कि राजा अपने राजपरिवार में सभी लोगों से ज्यादा समय तक जीवित रहेगा| उसके बदले में उसने कहा कि उसको दीर्घायु होने का सौभाग्य प्राप्त है और उसका राशिफल बहुत अच्छा है| राजा अपने दीर्घायु होने और अपने अच्छे स्वस्थ्य के बारे में सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ| उसने ज्योतिषी से कहा “आपको जो भी उपहार मुझसे मांगना है मांग लो मैं आपको वह दे दूंगा”| ज्योतिषी ने कहा “कृपया मेरा सहकर्मी जो कारगर में बंद है उसे छोड़ दीजिए”|

संवाद की कुशलता से बहुत फर्क पड़ता है| कन्नड़ भाषा में एक दोहा है, “शब्दों से ही हंसी और मस्ती होती है, और शब्दों से ही शत्रुता भी हो सकती है”| इस लिए, हमारे संवाद से ही द्वंद्व उत्पन्न होता है|
उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया में और इन दोनों और अमेरिका में क्या संघर्ष है आज? यह केवल इन सब के बीच में प्रयोग किये गए शब्द ही तो हैं, सब केवल कथन के कारण है| इनके बीच में कोई व्यापारिक और अन्य विवाद नहीं है|

कन्नड़ में एक गीत है जिसमे कहा गया है “आपकी कथनी इतनी अद्भुत और मीठी होनी चाहिए की भगवान शिव भी केवल सुनें और प्रसन्नता से सहमति में अपना सर हिलाएं और कहें  हाँ  हाँ ”| ऐसी प्यारी आपकी कथनी होनी चाहिए|

प्रश्न : प्रिय गुरूजी, क्या आप समझा सकते हें कि मोह पर कैसे काबू पाएं? और आपके प्रति लगाव का क्या करें? इन दिनों यह बहुत कष्टकर हो गया है|
श्री श्री रविशंकर : आप प्रेम को छुपा नहीं सकते| ना ही आप उसका पूरी तरह व्यक्त कर सकते हें| यही प्रेम की कहानी रही है जन्मों से| जब प्रेम होता है तो वह उमड़ के आता है और आप उसे अपनी आँखों में, अपने कार्यों में देखते हैं| प्रेम छुपाया नहीं जा सकता, और फिर भी, पूर्ण रूप से व्यक्त भी नहीं किया जा सकता| आप जितना भी अभिव्यक्ति का प्रयत्न करते हैं, आप पाते हैं कि आप उसे वैसे नहीं व्यक्त कर पाए जैसा आप चाहते थे| यही समस्या है और यह पीड़ा इसके साथ आती है|
यही सत्य के साथ भी है| आप सत्य से बच नहीं सकते, और साथ ही उसे परिभाषित भी नहीं कर सकते| इसी प्रकार सौंदर्य को आप त्याग नहीं सकते पर आप उसे पूरी तरह पा भी नहीं सकते| इसी लिए मनुष्य जाती इतनी बड़ी समस्या है| वे ये सब वस्तुएं चाहते हैं प्रेम, सत्य, सौंदर्य| बताइए मुझे, कौन सत्य नहीं चाहता? क्या आप सह पाएंगे यदि आपके आस पास सब असत्य बोल रहे हों? आप अंदर ही अंदर उबल पड़ेंगे| आप इसे स्वीकार नहीं कर पाएंगे| आप अपेक्षा करते हैं कि सब आपसे सत्य बोलेंगे| हैं न? यदि सबसे नहीं तो कम से कम कुछ लोगों से तो आप यह आशा रखते हैं| जब आप पाते हैं कि वह भी नहीं हो रहा, तो आप बहुत स्तब्ध रह जाते हैं| पर क्या आप स्वयं अपने आस पास सबके प्रति सच्चे हैं? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह है| इसी लिए सत्य वह है जिससे आप बच नहीं सकते या छुटकारा नहीं पा सकते| परन्तु, आप उल्लेख भी नहीं कर सकते कि सत्य क्या है| जो भी इस क्षण का सत्य है आपके लिए, हो सकता है किसी और के लिए सत्य न हो| क्या आप समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूँ? मान लीजिए कि आप किसी बात को सत्य मानते हैं| यदि आप उसमें थोड़ा गहरा जायें, तो आप पाते हैं, “ओह, जिसे मैं सत्य मानता था वह तो असत्य है”|
आप में से कितने लोगों को यह अनुभव हुआ है, जहाँ आपने किसी बात को सच सोचा हो, केवल यह जानने के लिए कि जैसा आपने समझा था सत्य उस से भिन्न है? हाथ खड़ा कीजिये| (बहुत से लोग हाथ उठाते हैं|)
तो आप कैसे भांप सकते हैं सत्य क्या है? क्या आप सत्य की परिभाषा बता सकते हैं? नहीं|
क्या आपने अकबर और बीरबल की कहानी सुनी है? मैंने यह कहानी पहले भी सुनाई है| भारत में एक रजा था जिसका नाम था अकबर| एक दिन उसे एक विचार आया कि जो भी व्यक्ति झूठ बोलेगा उसे फांसी की सज़ा सुनाई जायेगी| जब इस नियम का ऐलान किया गया तो लोगों में हड़बड़ी मच गई|
पहले सारे व्यापारी एकत्रित हो गए और बोले, “यह तो बड़ा ही कठोर नियम है| हम जब भी अपना सामान बेचते हैं, सर्वदा कहते हैं कि यह सबसे उत्तम है| जब हम रेशम बेचते हैं तो कहते हैं कि यह सबसे बढ़िया रेशम है, यह जानते हुए कि वह सर्वोत्तम नहीं है| दक्षिण में इस से बेहतर रेशम मिलता है| पर हमें अपना सामान भी तो बेचना है| हम क्या करें? हम अपने व्यापार का नाश तो नहीं कर सकते|
फिर आया चिकित्सकों का समुदाय| चिकित्सकों नें आपस में विमर्श किया, “जब भी हम कोई दवा देते हैं, वह बिमारी का अनुमान लगा कर देते हैं| हम इस आशा से दवा देते हैं कि रोगी ठीक हो जायेगा, पर फिर भी हम रोगी को आश्वासन देते हैं कि उसका रोग समाप्त हो जायेगा और वह अवश्य ही स्वस्थ हो जायेगा| यदि दवा ने काम नहीं किया, तो हमें भी जेल में डाल देंगे”!
तो चिकित्सकों ने भी सोचा कि राजा पागल हो गए हैं| वे इस नियम का पालन नहीं कर सकते थे इसलिए सारा चिकित्सक समुदाय भी परेशान हो गया|
इसके बाद आये ज्योतिषी| वे बोले, “यह आदमी हमारा धंधा चौपट करने आया है! भविष्यवाणी करते समय हम कुछ बातें समझते हैं और कुछ का अनुमान लगाते हैं और फिर भविष्यवाणी करते हैं”| तो अकबर के राज में जितने ज्योतिषी थे वे भी घबरा गए| वे सोचने लगे कि यह नियम सर्वनाशी है और उन्हें अपनी जीविका के लिए कहीं और जाना पड़ेगा, शायद अमरीका!
फिर आये वकील, और सोचने लगे, “यह नियम तो बहुत अनुचित है| हम तो अपनी जीविका कमाते हैं सफ़ेद को काला और काले को सफ़ेद साबित कर के| इसी लिए तो लोग हमारे पास आते हैं”| तो वकील भी अब संकट में थे|
फिर पंडित भी मुसीबत में आ गए|
इस तरह हर समुदाय के लोग संकट में आ गए इस नियम के कारण| वे सब सोचने लगे, “अब बिल्ली के गले में घंटी कौन डालेगा और हमें इस नियम से बचायेगा?
उन्होंने तब बीरबल को पकड़ा, जो एक ज्ञानी आदमी था और अकबर के महल में मसखरा था| वह राजा को बहुत प्रिय था| बीरबल ने उनकी सारी समस्याएं सुनीं|
एक दिन बीरबल राजा के भीतरी कक्ष में जा रहा था और राजा के रक्षकों ने उसे रोका| उन्होंने उससे पूछा, “तुम कहाँ जा रहे हो”?
बीरबल ने जवाब दिया, “मैं खुद को फांसी लगाने जा रहा हूँ”, जो कि सच नहीं था| यह समाचार राजा तक पहुंचा| बीरबल ने झूठ बोला था कि वह राजा के कक्ष में फांसी लगवाने जा रहा है| परन्तु, यदि अब वे उसे फांसी देते, तो जो बीरबल ने कहा था वह वास्तव में सच था| उसे फांसी दे कर वे एक मासूम इंसान को दंड देते|
उन दिनों यदि कोई राजा किसी मासूम इंसान को दंड देता, तो राजा को भी वही दंड भुगतना पड़ता था| यह उन दिनों का नियम था| यह सबसे बड़ा अपराध था|
अब, यदि राजा उसे बिना दंड के जाने देता तो यह नए नियम के विपरीत होता, और यदि दंड देता तो एक और नियम तोड़ रहा होता| राजा परेशान हो गया| उसने अपने सारे विद्वानों को बुलाया चर्चा के लिए|
“बीरबल का क्या करें इस मामले में”? अकबर ने उन सब से पूछा|
“बीरबल ने अवश्य झूठ बोला है, पर अब उसे दंड दें या ना दें”?
तभी बीरबल आया, और बोला, “देखो, जिसे व्यक्त किया जाए बस वही सत्य नहीं है| सत्य जो है वही है| और यह जानना कि क्या है, यह एक और विषय है”|
इस के बाद उन्होंने वह नियम रद्द कर दिया और सब खुशी पूर्वक रहे| यही कहानी का अंत है|
सत्य वो नहीं है जो आप बोलते हैं, वह शब्दों से बंधा हुआ नहीं है| यह समय के परे है, अतीत, वर्तमान, भविष्य| जो समय की कसौटी पर सही उतरे वह सत्य है| इसीलिए सत्य की कोई परिभाषा नहीं है|
आप सत्य से बच भी नहीं सकते| यही सौंदर्य के साथ है| सौंदर्य त्यागा नहीं जा सकता| यदि आप उसे तयाद सकते हैं, तो वह सौंदर्य नहीं है| और आप सौंदर्य को पा भी नहीं सकते|
यह मानव जीवन के अनिवार्य अंश हैं|

प्रश्न : गुरूजी, मैंने प्रतिबिम्ब के बारे में पढ़ा है| हमारे कितने प्रतिबिम्ब होते हैं? और इसका क्या अर्थ है?
श्री श्री रविशंकर : जब आपने कोई शब्द कहा है, आपने उसके साथ एक अर्थ भी जोड़ दिया है| प्रतिबिम्ब केवल प्रतिबिम्ब है| जो कुछ भी आपको बाहर से दिखता है| आपके कर्म आपके पर्तिबिम्ब हैं| कुछ मायनों में आपका शरीर भी आपका प्रतिबिम्ब है|
जब आप इस सत्य पर गौर करेंगे, तो सब अर्थ साफ़ हो जायेगा| हम कहते हैं, “असन्गोहं असन्गोहं पुनः पुनः”| इसका अर्थ है मैं यह नहीं हूँ, मैं यह नहीं हूँ| मैं इन सब से अलग हूँ, अन्छुआ हूँ| मैं अपना शरीर, विचार, भावनाएं, और जो भी मैने कर्म किये हैं, वह नहीं हूँ”|
तब हम साक्षी बनने लगते हैं, और जो कुछ भी हो रहा है उस से अपने को दूर कर सकते हैं|